Tuesday, September 26, 2017

जीवनभर संघर्ष

ज्यों ज्यों  मानव विकास अपनी गति पकड़ रहा है इन्सान के लिए हर स्तर पर प्रतिद्वंद्विता बढती जा रही है.सर्वप्रथम जब एक बच्चा प्रथम बार स्कूल जाता है तो वह प्रतिद्वंद्विता का सामना करना शुरू कर देता है जब उसे अपने माता द्वारा स्कूल में प्रवेश पाने के लिए जिद्दो जहद करनी पड़ती है.तत्पश्चात अपने सुनहरे भविष्य के लिए अधिक से  अधिक परिश्रम कर क्लास में सबसे आगे रहने की होड़ में लग जाता है.कॉलेज की पढाई के पश्चात् अपने लक्ष्य को पाने के लिए एक अच्छे कोर्स में प्रवेश पाने के लिए अनेक प्रतियोगिताओं से गुजरना पड़ता है. जब उसे अपनी इच्छानुसार कॉलेज या व्यावसायिक कोर्स में प्रवेश कर लेता है तो उसे सभी साथियों से अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने की होड़ में लगना  पड़ता है. जब वह अपने कोर्स को पूरा कर लेता है उसके लिए जीवन का पहला आवश्यक पड़ाव पार हो जाता है. परन्तु प्रतिद्वंद्विता उसका पीछा नहीं छोडती अब उसे अपने जॉब में प्रतिद्वंद्विता का सामना करना होता है,साथ ही अपने निजी जीवन(अपने परिवार) की चुनोतियों का सामना करना  पड़ता है. इस प्रकार वह जीवन भर प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ता है उससे जूझना पड़ता है और यह भी आवश्यक नहीं है की प्रत्येक पड़ाव पर उसे सफलता मिलती रहे. जो लोग अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं .कर पाते हैं अथवा यथोचित सफलता नहीं मिल पाती तो भी उन्हें अपने स्तर पर भी प्रतिद्वंद्विता का सामना  करना होता है,अर्थात अपने स्तर को बनाये रखने के लिए जिद्दोजहद करनी पड़ती है,परन्तु अब एक निराशा का भाव भी उसके जीवन में जुड़ जाता है. जिससे प्रभावित होकर कुंठित हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. इसी प्रकार जो सफलता की ऊंचाईयों पर पहुँच जाते है अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफल हो जाते हैं, तो उनके लिए प्रतिस्पर्द्धा समाप्त नहीं हो जाती उन्हें भी अपने को उच्चतम स्तर पर बनाये रखने के लिए संघर्ष करते रहना पड़ता है.

     कोई व्यक्ति यह सोचता है की मैं दस लाख का स्वामी हो जाऊं तो मेरे लिए पर्याप्त होगा और मेरा जीवन सफल हो जायेगा. परन्तु जब वह वहां तक पहुँचता है, तो वह पाता है, की अभी तो वह करोड़ों व्यक्तियों से बहुत पीछे है.उसका लक्ष्य तो बहुत ही छोटा था, उसने तो कुछ भी हासिल नहीं किया. उसे अब करोड़पति व्यक्तियों की लम्बी लिस्ट से सामना होता है, यदि वह किसी प्रकार से दिन रात खपा कर अपनी इच्छाओं ,आकाँक्षाओं को दबाते हुए,करोड़ पति बनने में सफल हो गया  तो भी उसे मलाल ही रहेगा की उसने सारा जीवन जिस उपलब्धि को प्राप्त  करने में समाप्त कर दिया अर्थात व्यय कर दिया, फिर भी लाखों लोगों से वह अब भी बहुत दूर है. कहने का तात्पर्य है की मरते दम तक हम प्रतिस्पर्द्धा से जूझते रहते हैं, फिर भी अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट नहीं हो पाते.एक लक्ष्य को प्राप्त करने के पश्चात् आगे के लक्ष्य को पाने के लिए बैचेनी बढ़ने लगती है.और अब तक मिली सफलताओं से संतुष्टि का आभास नहीं हो पाता,बल्कि हताशा बढ़ने लगती है.

     इसी प्रकार यदि को मेधावी छात्र एक डिग्री लेकर कालेज से निकलता है, तो उसे लगता है अभी उसे और भी डिग्रियां प्राप्त करनी चाहिए, परन्तु जैसे जैसे वह अपनी डिग्रीयां बढाता जाता है और उसका लक्ष्य भी बढ़ता जाता है, परन्तु वह दुनिया में सर्वाधिक उपाधियाँ पाने वाला व्यक्ति नहीं बन पाता, क्योंकि दुनिया में विद्वानों की भी कोई कमी नहीं है. यही हाल प्रत्येक क्षेत्र का है चाहे वह ताकत का विषय हो, धन का विषय हो, विद्वता का विषय हो सामर्थ्य का विषय हो दुनिया में सब कुछ असीमित है. आखिर किससे प्रतिस्पर्द्धा करके हम संतुष्ट हो सकते हैं.अतः अपनी सामर्थ्य को पहचान कर ही लक्ष्य निर्धारित किया जाय तो अधिक संतोष की प्राप्ति हो सकती है.

     जब कोई पहलवान अखाड़े में उतरता है तो वह अपने सामने किसी को भी नहीं जीतने देने की इच्छा रखता है, परन्तु अनेक पहलवानों से जीतने के पश्चात् भी उसे नयी नयी चुनौतियों से जूझना पड़ता है, और अपने लक्ष्य तक पहुँचने से पूर्व ही बूढा हो जाता है, और विश्वव्यापी पहलवान नहीं बन पाता. यही स्थिति किसी भी पदाधिकारी(सरकारी या निजी कम्पनी) की होती है वह निरंतर उच्चतम पदों को प्राप्त करने के बावजूद सर्वोच्च पदों पर नहीं पहुँच पाता और सेवा निवृति का समय आ जाता है.

     सबसे अच्छा तो यही है की अपने स्तर से ऊपर उठने के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए और परिश्रम करते रहना चाहिए. अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट रहना ही हमारे लिए सवर्श्रेष्ठ है अन्यथा प्रतिस्पर्धा के दल दल  में फंस कर अपने जीवन को बर्बाद कर लेना पड़ेगा और संतुष्टि कभी भी नहीं मिल सकेगी, जिसको(संतुष्टि) पाने के लिए जीवन भर हम  प्रयास रत रहे.

आज के बुजुर्गों की

गत पांच दशकों में आये सामाजिक, आर्थिक बदलाव अभूतपूर्व हैं.जितना बड़ा परिवर्तन इन दशकों में देखने को मिला है, शायद ही पहले कभी इतनी तीव्र गति से सब कुछ बदला हो. आज का बुजुर्ग इतने बदलावों देखकर हतप्रभ है, और वह नयी पीढ़ी को इसे बयां भी नहीं कर सकता. नयी सामाजिक व्यवस्था से सबसे अधिक दुष्प्रभाव का शिकार हुआ है तो वह है आज का बुजुर्ग अथवा वरिष्ठ नागरिक.

सबसे पहले आर्थिक स्थिति को समझना होगा निरंतर बढ़ने वाली महंगाई ने बुजुर्गों की अपनी कमाई से बची खुची बचत को प्रभाव हीन कर दिया है, न तो यह पूँजी उसके शेष जीवन के निर्वहन के लिए पर्याप्त है और न ही उससे प्राप्त होने वाले ब्याज से भरण पोषण संभव है.अक्सर वृद्धावस्था में बुजुर्गों का अपना आर्थिक स्रोत ख़त्म ही हो जाता है,कुछ सरकारी नौकरी से सेवा निवृत या अपनी संपत्ति से होने वाली आय प्राप्त करने वाले बुजुर्गों को छोड़ कर, अधिकतर बुजुर्ग आर्थिक रूप से पराश्रित हो चुके होते हैं.जब बुजुर्ग अपने आत्मसम्मान को दांव पर लगा देता है, उसकी मजबूरी हो जाती है की वह आर्थिक आवश्यकताओं के लिए अपनी संतान के ऊपर निर्भर रहे.जो बुजुर्ग शारीरिक रूप से आश्रित हैं उनकी व्यथा का बखान करना शब्दों के माध्यम से संभव नहीं है.
आज से मात्र तीस वर्ष पूर्व बुजुर्ग को ज्ञान का भंडार माना जाता था और घर में बुजुर्ग का होना संतान के आत्मविश्वास बनाये रखने में विशेष भूमिका निभाता था. परन्तु आज बुजुर्ग ज्ञान का भंडार नहीं रह गया है, बल्कि वह तो परम्पराओं का पुतला बन कर रहा गया है. नयी पीढ़ी को सर्वाधिक ज्ञान गूगल बाबा से मिल जाता है वह भी नवीनतम तथ्यों पर आधारित एवं विश्वसनीय होता है. जिसमें गलत एवं संदेहास्पद सूचनाओं की सम्भावना न के बराबर होती है. अतः आज का युवा बुजुर्गों से कहीं अधिक विद्वान् है और उसके पास सटीक जानकारियों का संग्रह है. इस प्रकार से घर के बुजुर्ग का ज्ञान और तजुर्बा महत्वहीन हो गया है और परिवार में उसका मान सम्मान समाप्त हो चुका है.उसकी आवश्यकता भी समाप्त हो गयी है.
स्वास्थ्य सेवाओं में उन्नति के कारण आज का बुजुर्ग दीर्घ जीवन जीता है, वह भी उसके लिए कष्टदायक ही साबित हो रहा है जब परिवार में समाज में उसकी आवश्यकता ही नहीं है तो वह अपने जीवन को एक भार स्वरूप जीता है. जबकि पहले अक्सर बुजुर्ग साठ,पैसंठ तक आते आते दुनिया छोड़ देता था.अतः आज बुजुर्ग को अपने निरर्थक जीवन जीने को मजबूर नही होना पड़ता था.

आज के बुजुर्ग के पूर्व की अपेक्षा अच्छे स्वास्थ्य होने के बावजूद कार्य के अभावों के साथ जीने को मजबूर होता है. जब एक युवा(जो सर्वाधिक उर्जावान अवस्था में होता है) को ही रोजगार नहीं मिल् पाता तो एक अपेक्षाकृत कम क्षमता के अभ्यर्थी को रोजगार कौन देगा, वैसे भी बुजुर्ग को कार्य करने के लिए अपने जीवन की हैसियत को देखना भी उसकी मजबूरी होती है.अनेक बार घर के अन्य परिजनों संतानों की हैसियत को देख कर भी उसे रोजगार ढूँढने की मजबूरी होती है. जिस कारण उसे उसके मनमाफिक रोजगार नहीं मिल पाता. खाली रहना उसके लिए कम कष्टकारी नहीं होता.उसके लिए समय व्यतीत करना एक चुनौती बन जाती है जिसे आज का युवा समझ भी नहीं पाता.
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मनुष्य को अपने विकास के लिए समाज की आवश्यकता हुयी , इसी आवश्यकता की पूर्ती के लिए समाज की प्रथम इकाई के रूप में परिवार का उदय हुआ .क्योंकि बिना परिवार के समाज की रचना के बारे में सोच पाना असंभव था .समुचित विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक ,शारीरिक ,मानसिक सुरक्षा का वातावरण का होना नितांत आवश्यक है .परिवार में रहते हुए परिजनों के कार्यों का वितरण आसान हो जाता है .साथ ही भावी पीढ़ी को सुरक्षित वातावरण एवं स्वास्थ्य पालन पोषण द्वारा मानव का भविष्य भी सुरक्षित होता है उसके विकास का मार्ग प्रशस्त होता है .परिवार में रहते हुए ही भावी पीढ़ी को उचित मार्ग निर्देशन देकर जीवन स्नाग्राम के लिए तैयार किया जा सकता है

              आज भी संयुक्त परिवार को ही सम्पूर्ण परिवार माना जाता है .वर्तमान समय में भी एकल परिवार को एक मजबूरी के रूप में ही देखा जाता है .हमारे देश में आज भी एकल परिवार को मान्यता प्राप्त नहीं है औद्योगिक विकास के चलते संयुक्त परिवारों का बिखरना जारी है . परन्तु आज भी संयुक्त परवर का महत्त्व कम नहीं हुआ है .संयुक्त परिवार के महत्त्व पर चर्चा करने से पूर्व एक नजर संयुक्त परिवार के बिखरने के कारणों ,एवं उसके अस्तित्व पर मंडराते खतरे पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं .संयुक्त परिवारों के बिखरने का मुख्य कारण है रोजगार पाने की आकांक्षा .बढती जनसँख्या तथा घटते रोजगार के कारण परिवार के सदस्यों को अपनी जीविका चलाने के लिए गाँव से शहर की ओर या छोटे शहर से बड़े शहरों को जाना पड़ता है और इसी कड़ी में विदेश जाने की आवश्यकता पड़ती है .परंपरागत कारोबार या खेती बाड़ी की अपनी सीमायें होती हैं जो परिवार के बढ़ते सदस्यों के लिए सभी आवश्यकतायें जुटा पाने में समर्थ नहीं होता .अतः परिवार को नए आर्थिक स्रोतों की तलाश करनी पड़ती है .जब अपने गाँव या शहर में नयी सम्भावनाये कम होने लगती हैं तो परिवार की नयी पीढ़ी को राजगार की तलाश में अन्यत्र जाना पड़ता है .अब उन्हें जहाँ रोजगार उपलब्ध होता है वहीँ अपना परिवार बसाना होता है .क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं होता की वह नित्य रूप से अपने परिवार के मूल स्थान पर जा पाए .कभी कभी तो सैंकड़ो किलोमीटर दूर जाकर रोजगार करना पड़ता है .संयुक्त परिवार के टूटने का दूसरा महत्वपूर्ण कारण नित्य बढ़ता उपभोक्तावाद है .जिसने व्यक्ति को अधिक महत्वकांक्षी बना दिया है .अधिक सुविधाएँ पाने की लालसा के कारण पारिवारिक सहनशक्ति समाप्त होती जा रही है ,और स्वार्थ परता बढती जा रही है .अब वह अपनी खुशिया परिवार या परिजनों में नहीं बल्कि अधिक सुख साधन जुटा कर अपनी खुशिया ढूंढता है ,और संयुक्त परिवार के बिखरने का कारण बन रहा है . एकल परिवार में रहते हुए मानव भावनात्मक रूप से विकलांग होता जा रहा है .जिम्मेदारियों का बोझ ,और बेपनाह तनाव सहन करना पड़ता है .परन्तु दूसरी तरफ उसके सुविधा संपन्न और आत्म विश्वास बढ़ जाने के कारण उसके भावी विकास का रास्ता खुलता है .
अनेक मजबूरियों के चलते हो रहे संयुक्त परिवारों के बिखराव के वर्तमान दौर में भी संयुक्त परिवारों का महत्त्व कम नहीं हुआ है .बल्कि उसका महत्व आज भी बना हुआ है .उसके महत्त्व को एकल परिवार में रह रहे लोग अधिक अच्छे से समझ पाते हैं .उन्हें संयुक्त परिवार के फायेदे नजर आते हैं .क्योंकि किसी भी वस्तु का महत्त्व उसके अभाव को झेलने वाले अधिक समझ सकते हैं .अब संयुक्त परिवारों के लाभ पर सिलसिले बार चर्चा करते हैं .

सुरक्षा और स्वास्थ्य ;परिवार के प्रत्येक सदस्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी सभी परिजन मिलजुल कर निभते हैं .अतः किसी भी सदस्य की स्वास्थ्य समस्या ,सुरक्षा अमास्या ,आर्थिक समस्या पूरे परिवार की होती है .कोई भी अनापेक्षित रूप से आयी परेशानी सहजता से सुलझा ली जाती है .जैसे यदि कोई गंभीर बीमारी से जूझता है तो भी परिवार के सब सदस्य अपने सहयोग से उसको बीमारी से निजात दिलाने में मदद करते है उसे कोई आर्थिक समस्य या रोजगार की संसय अड़े नहीं आती .ऐसे ही गाँव में या मोहल्ले में किसी को उनसे पंगा लेने की हिम्मत नहीं होती संगठित होने के कारण पूर्ताया सुरक्षा मिलती है .व्यक्ति हर प्रकार के तनाव से मुक्त रहता है .
विभिन्न कार्यों का विभाजन ;-परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण कार्यों का विभाजन आसान हो जाता है .प्रत्येक सदस्य के हिस्से में आने वाले कार्य को वह अधिक क्षमता से कर पता है .और विभिन्न अन्य जिम्मेदारियों से भी मुक्त रहता है .अतः तनाव मुक्त हो कर कार्य करने में अधिक ख़ुशी मिलती है .उसकी कार्य क्षमता अधिक होने से कारोबार अधिक उन्नत होता है .परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ती अपेक्षाकृत अधिक हो सकती है और जीवन उल्लास पूर्ण व्यतीत होता है .
भावी पीढ़ी का समुचित विकास ;संयुक्त परिवार में बच्चों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित और उचित शारीरिक एवं चारित्रिक विकास का अवसर प्राप्त होता है .बच्चे की इच्छाओं और आवश्यकताओं का अधिक ध्यान रखा जा सकता है .उसे अन्य बच्चों के साथ खेलने का मौका मिलता है .माता पिता के साथ साथ अन्य परिजनों विशेष तौर पर दादा ,दादी का प्यार भी मिलता है .जबकि एकाकी परिवार में कभी कभी तो माता पिता का प्यार भी कम ही मिल पता है यदि दोनों ही कामकाजी हैं .दादा ,दादी से प्यार के साथ ज्ञान ,अनुभव बहर्पूर मिलता है .उनके साथ खेलने , समय बिताने से मनोरंजन भी होता है उन्हें संस्कारवान बनाना ,चरित्रवान बनाना ,एवं हिर्ष्ट पुष्ट बनाने में अनेक परिजनों का सहयोग प्राप्त होता है .एकाकी परिवार में संभव नहीं हो पता .
संयुक्त परिवार में रहकर कुल व्यय कम ;-बाजार का नियम है की यदि कोई वस्तु अधिक परिमाण में खरीदी जाती है तो उसके लिए कम कीमत चुकानी पड़ती है .अर्थात संयुक्त रहने के कारण कोई भी वस्तु अपेक्षाकृत अधिक मात्र में खरीदनी होती है अतः बड़ी मात्र में वस्तुओं को खरीदना सस्ता पड़ता है .दूसरी बात अलग अलग रहने से अनेक वस्तुएं अलग अलग खरीदनी पड़ती है जबकि संयुक्त रहने पर कम वस्तु लेकर कम चल जाता है .उदाहरण के तौर पर एक परिवार तीन एकल परिवारों के रूप में रहता है उन्हें तीन मकान ,तीन कार या तीन स्कूटर ,तीन टेलीविजन ,और तीन फ्रिज ,इत्यादि प्रत्येक वस्तु अलग अलग खरीदनी होगी .परन्तु वे यदि एक साथ रहते हैं उन्हें कम मात्र में वस्तुएं खरीद कार धन की बचत की जा सकती है .जैसे तीन स्कूटर के स्थान पर एक कार ,एक स्कूटर से कम चल सकता है ,तीन फ्रिज के स्थान पर एक बड़ा फ्रिज और एक A .C लिया जा सकता है इसी प्रकार तीन मकानों के साथ पर एक पूर्णतया सुसज्जित बड़ा सा बंगला लिया जा सकता है .तेलेफोने ,बिजली ,काबले के अलग अलग खर्च के स्थान पर बचे धन से कार व् A.C. मेंटेनेंस का खर्च निकाल सकता है .इस प्रकार से उतने ही बजट में अधिक उच्च जीवन शैली के साथ जीवन यापन किया जा सकता है .
भावनात्मक सहयोग ;- किसी विपत्ति के समय ,परिवार के किसी सदस्य के गंभीर रूप से बीमार होने पर ,पूरे परिवार के सहयोग से आसानी से पार पाया जा सकता है .जीवन के सभी कष्ट सब के सहयोग से बिना किसी को विचलित किये दूर हो जाते हैं .कभी भी आर्थिक समस्या या रोजगार चले जाने की समस्या उत्पन्न नहीं होती क्योंकि एक सदस्य की अनुपस्थिति में अन्य परिजन कारोबार को देख लेते हैं .
चरित्र निर्माण में सहयोग ;-संयुक्त परिवार में सभी सदस्य एक दूसरे के आचार व्यव्हार पर निरंतर निगरानी बनाय रखते हैं ,किसी की अवांछनीय गतिविधि पर अंकुश लगा रहता है .अर्थात प्रत्येक सदस्य चरित्रवान बना रहता है .किसी समस्या के समय सभी परिजन उसका साथ देते हैं और सामूहिक दबाव भी पड़ता है कोई भी सदस्य असामाजिक कार्य नहीं कार पता ,बुजुर्गों के भय के कारण शराब जुआ या अन्य कोई नशा जैसी बुराइयों से बचा रहता है
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है की संयुक्त परिवार की अपनी गरिमा होती अपना ही महत्त्व होता है.


{“जीवन संध्याअर्थात जीवन का अंतिम अध्याय सर्वाधिक समस्याओं से घिरा होता है।धनार्जन के स्रोत या तो सूख जाते है या बहुत सीमित हो जाते है।अपने परिवार के अपने ही लोग साथ छोड़ने लगते हैं,उपेक्षा  करने लगते हैं,बीमारियाँ डेरा डाल  लेती हैं।यही कारण  है पूरे जीवन में वृद्धावस्था सबसे कष्टकारी सिद्ध होती है।}

भारतीय समाज में महिलाओं की स्तिथि

वैसे तो प्राचीन काल से ही दुनिया भर में महिलाओ को उनकी शारीरिक रचना के कारण पुरुषों की अपेक्षा निम्न स्थान दिया जाता रहा है,परन्तु शिक्षा और ओद्योगिक विकास के साथ साथ विकसित देशो में महिलाओ के प्रति सोच में परिवर्तन आया और नारी समाज को पुरुष के बराबर मान सम्मान और न्याय प्राप्त होने लगा.उन्हें पूरी स्वतंत्रता, स्वछन्दता, सुरक्षा एवं बराबरी के अधिकार प्राप्त हैं.कोई भी सामाजिक नियम महिलाओ और पुरुषो में भेद भाव नहीं करता.
      हमारे देश में स्तिथि अभी भी प्रथक है,यद्यपि कानूनी रूप से महिला एवं पुरुषो को समान अधिकार मिल गए हैं. परन्तु सामाजिक ताने बाने में आज भी नारी का स्थान दोयम दर्जे का है.हमारा समाज अपनी परम्पराओ को तोड़ने को तय्यार नहीं है.जो कुछ बदलाव आ भी रहा है उसकी गति बहुत धीमी है.शिक्षित पुरुष भी अपने स्वार्थ के कारण अपनी सोच को बदलने में रूचि नहीं लेता, उसे अपनी प्राथमिकता को छोड़ना आत्मघाती प्रतीत होता है.यही कारण है की महिला आरक्षण विधेयक कोई पार्टी पास नहीं कर पाई.आज भी मां बाप अपनी पुत्री का कन्यादान कर संतोष अनुभव करते हैं.जो इस बात का  अहसास दिलाता है की विवाह, दो प्राणियों का मिलन नहीं है,अथवा साथ साथ रहने का वादा नहीं है, एक दूसरे का पूरक बनने का संकल्प नहीं है,बल्कि लड़की का संरक्षक बदलना मात्र है.
      पिछड़े क्षेत्रो और देहाती इलाकों में आज भी लड़की का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है.उसको एक रखवाला चाहिये. उसकी अपनी कोई भावना इच्छा कोई मायने नहीं रखती. उसे जिस खूंटे बांध दिया जाय उसकी सेवा करना ही उसकी नियति बन जाती है. विवाह पश्चात् वर पक्ष द्वारा भी कहा जाता है, की आपकी बेटी अब हमारी जिम्मेदारी हो गयी. आपके अधिकार समाप्त हो गए.अब मां बाप को अपनी बेटी को अपने दुःख दर्द में शामिल करने के लिय वर पक्ष से याचना करनी पड़ती है. उनकी इच्छा होगी तो आज्ञा मिलेगी वर्ना बेटी खून के आसूँ पीकर ससुराल वालों की सेवा करती रहेगी.
पति अपनी पत्नी से अपेक्षा करता है की वह उसके माता पिता की सेवा में कोई कसर न छोड़े, परन्तु स्वयं उसके माता पिता (सास ससुर) से अभद्र व्यव्हार भी करे तो चलेगा, अर्थात पत्नी को अपने माता पिता का अपमान भी बर्दाश्त करना पड़ता है. यानि लड़के के माता पिता सर्वोपरि हैं. और लड़की के माता पिता दोयम दर्जे के हैं क्योकि उन्होंने लड़की को जन्म दिया था. आखिर यह दोगला व्यव्हार क्यों? क्या आज भी समाज नारी को दोयम दर्जा ही देना चाहता है .माता पिता लड़के के हों या लड़की के बराबर का सम्मान मिलना चाहिये.  यही कारण है की परिवार में पुत्री होने पर परिजन निराश होते है,और लड़का होने पर उत्साहित. जब तक लड़का लड़की को संतान समझ कर समाज समान स्तर का व्यव्हार नहीं देगा, नारी उथान संभव नहीं है.
      भारतीय महिला आज भी अनेक प्रकार से शोषण और भेद भाव का शिकार हो रही है,कुछ विचारणीय विषय नीचे प्रस्तुत है, जो सिद्ध करते हैं की अभी महिला का स्वतंत्रता और समान अधिकार प्राप्ति का लक्ष्य बहुत दूर है.
विवाह एवं फेरो के अवसर पर कन्यादान की रस्म निभाई जाती है। क्या कन्या या लड़की कोई जानवर है जिसे दान में दे दिया जाता है,अथवा दान देने का उपक्रम किया जाता है.क्या यह नारी जाति का अपमान नहीं है।
धर्म के ठेकेदारों ने पुरुष प्रधान समाज की रचना कर महिलाओं को दोयम दर्जा प्रदान किया । उनकी सारी खुशियाँ इच्छाए,भावनाए,पुरुषों को संतुष्ट करने तक सिमित कर दी गयी।
महिलाओं के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना करना आज भी संभव नहीं हो पा रहा है।
आज भी समाज में नारी को भोग्या समझने की मानसिकता से मुक्ति नहीं मिल पाई है.
निम्न आय वर्ग एवं माध्यम आय वर्ग में ही परम्पराओं के नाम पर महिलाओं के शोषण जारी है। समाज के ठेकेदारों का उच्च आय वर्ग पर जोर नहीं चलता. अतः नारी पूर्ण रूपेण सक्षम हो चुकी है।
जरा सोचिये पुरुष यदि अमानुषिक कार्य करे तो भी सम्मानीय व्यक्ति जैसे सामाजिक नेता, पंडित, पुरोहित इत्यदि बना रहता है,परन्तु यदि स्त्री का कोई कार्य संदेह के घेरे में आ जाये तो उसको निकम्मी ,पतित जैसे अलंकारों से विभूषित कर अपमानित किया जाता है।
आज भी ऐसे लालची माता पिता विद्यमान हैं जो अपनी बेटी को जानवरों की भांति किसी बूढ़े, अपंग ,अथवा अयोग्य वर से विवाह कर देते हैं, अथवा बेच देते हैं।
पुरुष के विधुर होने पर उसको दोबारा विवाह रचाने में कोई आपत्ति नहीं होती ,परन्तु नारी के विधवा होने पर आज भी पिछड़े इलाकों में लट्ठ के बल पर ब्रह्मचर्य का पालन कराया जाता है।
शादी के पश्चात् सिर्फ नारी को ही अपना सरनेम बदलने को मजबूर किया जाता है।
सिर्फ महिला को ही श्रृंगार करने की मजबूरी क्यों? श्रृंगार के नाम पर कान छिदवाना, नाक बिंधवाना नारी के लिए ही आवश्यक क्यों? कुंडल,टोप्स, पायल, चूडियाँ, बिछुए सुहाग की निशानी हैं अथवा पुरुष की गुलामी का प्रतीक?
आज भी नारी का आभूषण प्रेम क्या गुलामी मानसिकता की निशानी नहीं है?शादी शुदा नारी की पहचान सिंदूर एवं बिछुए जैसे प्रतीक चिन्ह होते हैं,परन्तु पुरुष के शादी शुदा होने की पहचान क्या है ? जो यह बता सके की वह भी एक खूंटे से बन्ध चुका है, अर्थात विवाहित है।
सिर्फ महिला ही विवाह के पश्चात् कुमारीसे श्रीमती हो जाती है पुरुष श्रीही रहता है .

               सिर्फ सरकार द्वारा बनाये गए कानूनों से नारी कल्याण संभव नहीं है,समाज की सोच में बदलाव लाया जाना जरूरी है,साथ ही प्रत्येक महिला का शिक्षित होना भी आवश्यक है.यदि महिला आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाती है तो शोषण से काफी हद तक मुक्ति मिल सकती है. प्रत्येक नारी को स्वयं शिक्षित, आत्म निर्भर हो कर, अपने अधिकार पुरुष से छिनने होंगे. दुर्व्यवहार, बलात्कार जैसे घिनोने अपराधों से लड़ने के लिए अपने अंदर शक्ति उत्पन्न करने के लिए कराटे आदि सीख कर, डटकर मुकाबला करना होगा, तब ही नारी को उचित सम्मान मिल सकेगा. यह सत्य है की बड़े बड़े शहरों में विचार धारा में काफी बदलाव भी आया है परन्तु अभी भी काफी बदलाव लाया जाना आवश्यक है और ग्रामीण क्षेत्रों में तो बहुत ही धीमी गति से सोच में बदलाव आ रहा है, जिसे प्रचार और प्रसार द्वारा तीव्र गति मिलना भी आवश्यक है, ताकि पूरा देश महिला वर्ग को सम्मान और गर्व की द्रष्टि से देख सके और देश की आधी आबादी भी देश के विकास में सहायक हो सके.
https://jarasochiye.com/2011/05/04/bharat-men-mahilaon-ki-stithi/

‘अन्तरजातीय विवाह से ही सामाजिक विषमता खत्म होगी’


प्रियंका सोनकर
 प्रियंका सोनकर  असिस्टेन्ट प्रोफेसर दौलत राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय. priyankasonkar@yahoo.co.in 

जब देश में जातिवादी हमले आम हो जायें, जब एक विचारशील मनुष्य भी अपने विचारों को कुन्द कर ले और यहां तक कि प्रगतिशील और विकासशील भारत जैसे देश में रूढ़ियां और परम्परायें इक्कीसवीं सदी में हावी हो जायें तब भारत को विकसित कैसे बनाया जा सकता है. जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर गोहाना, खैरलांजी, गोधरा-गुजरात, मुजफ्फरनगर, शंकरबीघा, लक्षमणपुर बाथे... ये सब पांचवी, सोलहवीं सदी की घटनायें नहीं हैं. इक्कीसवीं सदी में मनुष्य के जहन में पनप रही जातिगत हिंसा आज मानव समाज के प्रति ही आक्रामक और हिंसक हो चुकी है. जिस भारत जैसे देश में हिन्दुओं का सूत्र ‘अयं निजः परोवेति गणना च लघुचेतसाम, उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ से ही विकास और बन्धुता और समरसता की परिकल्पना की जाती रही हो, वही हिन्दू आज अचानक इतना घातक रूख कैसे अपना सकते  हैं. आज दादरी, फरीदाबाद, उड़ीसा में दलित महिलाओं के साथ हुई जातिवादी हमले, झारखंड में दलित महिलाओं को डायन करार देकर उनकी नृशंसनीय हत्यायें, और लेखकों पर घातक हमले ये कैसे भारत को अतुलनीय भारत की संज्ञा दिला सकते हैं. इसलिए आज के समय में इन सभी समस्याओं के समाधान और उनमें बदलाव की उम्मीद के लिए सुशीला टाकभौरे का उपन्यास ‘तुम्हें बदलना होगा...’ पढ़ना और उसकी प्रासंगिकता जरूरी हो जाती है.

सुशीला टाकभौरे कुछ पारम्परिक और रूढ़ग्रस्त मानसिकता से ग्रस्त मनुवादी, ब्राह्मणवादी तथा पितृसत्तात्मक व्यवस्था को यथास्थित बनाने वाले लोगों के विचारों को पूरी तरीके से ध्वस्त कर समाज में आमूलचूल और बहुआयामी तथा क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के लिए अपने उपन्यास में दो नायक-नायिकाओं धीरज और महिमा को खड़ा करती हैं. उनके नायक और नायिका दलित वैचारिकी तथा अम्बेडकरवादी दर्शन से अपनी ऊर्जा ग्रहण कर समाज में अपनी जोरदार भूमिका निभाते हैं. डॉ. अम्बेडकर के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करके वह मनुवादी लोगों का न केवल हृदय परिवर्तन करते हैं बल्कि सभी मिलकर (दलित-गैर-दलित) एक ऐसे समाज का निर्माण करने का निर्णय लेते हैं जिससे वास्तविक भारत बन सके न कि अतुलनीय भारत..... जहां न कोई जातिगत भेद-भाव हो और न ही धर्मगत, क्षेत्रगत, भाषागत, वर्णगत इत्यादि. जहां मनुष्य मनुष्य से  पारस्परिक और आन्तरिक-व्यवहारिक संबध स्थापित कर सके.

संविधान लागू होने के ६५ साल बाद भी कुछ सवर्णजातियां अपनी मानसिकता में बदलाव नहीं ला पायीं और किस तरह वे आज भी कुछ पदों पर अपना एकाधिकार बनाकर रखना चाहती हैं. इसके लिए वह विभिन्न हथकंडे अपनाने से भी बाज नहीं आतीं. नौकरी में अनुसूचित जाति के पदों को गायब करके उसके स्थान पर चुपके से उच्च जाति के पदों के लिए आवेदन निकालना तथा सवर्णों की भर्ती कराना यह उनकी पुरानी चाल रही है. सदियों से भाई-भतीजावाद यहां हावी रहा है और आज भी लगातार जारी है. किन्तु लेखिका की नायिका और नायक अम्बेडकरवादी विचारधारा से दर्शन ग्रहण करते हैं और वे इतने जागरूक तथा चेतनाशील हैं कि इस तरह की हेर-फेर को वे चुप-चाप सहने वाले नहीं हैं. अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार तथा उनके षड्यन्त्र का वे बेबाक जवाब देते हैं. महिमा गुस्से से फुंफकार कर बोली “आपने हमें धोखे में रखा. हमारे साथ गद्दारी की, हमें बेवकूफ बनाते रहे. तुम्हें शर्म नहीं आती, ऐसी नीच हरकतें करते हुए? इन्सानियत नाम की कोई चीज है तुम्हारे पास? बेईमानी की रोटी खाते हो, बेईमान....” और गुस्से के साथ महिमा, अपने हाथ की चप्पल पाण्डे जी के सामने रखी टीन के टेबल पर फटाफट मारने लगी. पाण्डे उस आवाज से ही भयभीत हो गये.” (सुशीला टाकभौरे रू तुम्हें बदलना होगा...पेज नं. 24) ‘उस दिन राकेश पाण्डे को यथार्थ रूप में पता चल गया, अम्बेडकरवादी जागरूक लोगों की ताकत अब कम नहीं है. अम्बेडकरवादी विचारधारा शेरनी का दूध है. जिसने शेरनी का दूध पी लिया, वह किसी से डर नहीं सकता. उसे कोई भ्रमित नहीं कर सकता.”(वही , पेज नं. 24)

मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना गया है. यही मनुष्य समाज में अपने विचार, ज्ञान, मेधा और व्यवहारिकता से अपनी एक अलग पहचान बनाता है. सामाजिक समस्याओं से जब वह जूझता है तो उसके विचारों में भी उथल-पुथल मचने लगती है और तब वह कुछ क्रान्तिकारी परिवर्तन की तरफ अपने कदम बढ़ाता है. किन्तु प्रश्न यह है कि इस परिवर्तन शील कदम में वह कितना यथार्थ से रूबरू होता है और वह कितनी ईमानदारी बरतता है. समाज में आज लोगों का व्यक्तित्व दोहरा होता जा रहा है. बहुत से लोग सामाजिक परिवर्तन में भी अपना हित साधना चाहते हैं जिससे उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैले तथा उनका नाम और पहचान हो. अस्मितामूलक विमर्श के चलते दलितों, स्त्रियों पर बात करना कुछ लोगों के लिए एक फैशन बन गया है जिसके चलते वह सेमिनार आयोजित कराते हैं, विभिन्न संगोष्ठियों में जाकर अपनी उपस्थिति भी बढ़ाते हैं, यहां तक कि समय-समय पर अपने घर में भी छोटी-मोटी विचार-गोष्ठियां भी करते हैं. जिससे समाज को यह पता चले कि अमुक व्यक्ति वास्तव में प्रगतिशील और समाज-सुधारक है. चमनलाल बजाज जैसे चरित्र इसी रूप को उजागर करते हैं. उनके लिए महिला जागृति पर बात करना इसी तरह का एक फैशन है. वह स्त्री समस्याओं को तो उठाते हैं, स्त्री-उत्थान और स्त्री-सशक्तिकरण की बात तो करते हैं किन्तु महिलाओं को चारदीवारी में रखकर, पुरानी परम्पराओं तथा रूढ़ियों में कैदकर के.  इस पर व्यंग्य करते हुए लेखिका लिखती है...‘नुकसान जिनका है, वे यहां मौजूद ही नहीं है. मेरा मतलब महिला वर्ग से है. नुकसान महिला वर्ग का है कि हम उनकी अनुपस्थिति में, उनके जीवन की समस्याओं और उनके सबलीकरण की योजनाओं पर चर्चा कर रहे हैं.’ लेखिका पुरूषों द्वारा फैलाये जा रहे छद्म को भी बेनकाब करती है जो महिलाओं की समस्याओं पर बात तो करना चाहते हैं किन्तु उनकी गैरमौजूदगी में ताकि कोई भी महिला अपनी सही और वास्तविक स्थिति का वर्णन न कर सके. (पेज नं. 41) लेखिका ऐसे स्वार्थी और स्वयं का हित साधने वाले लोगों के विषय में लिखती है “शिक्षित, अर्धशिक्षित और अशिक्षित, सभी लोग, सभी जाति, वर्ग और सभी धर्म के लोग समय के बदलते रूप को देखते हुए समझ रहे हैं, साथ ही अपनी स्थिति को भी पहचानने का प्रयत्न कर रहे हैं. ऐसे समय में जागरूक गैरदलित समझदार लोग यह समझने लगे हैं, शोषित वंचितों के बढ़ते आन्दोलनों को शांतिपूर्ण ढंग से रोकने के लिए, हम स्वयं उनके आन्दोलनों का नेतृत्व करें. उन्हें अपने ढंग से समझाने-बहलाने के लिए उनके हित सम्बन्धी कार्यों को अपने हाथों सम्पन्न करें. इससे समाज की पुरानी व्यवस्था भी बनी रहेगी और हमारी समाजसेवा से हमारा सम्मान भी बढ़ेगा.” (वही, पेज नं. 30) भारत की इस सामाजिक वर्णाश्रम व्यवस्था के तहत ऐसे सवर्ण लोग सदियों से अपनी क्षुधापूर्ति और स्वार्थपूर्ति करते आ रहे हैं. चूंकि अस्मितामूलक विमर्श के चलते जब दलित और स्त्री अपने शोषण से निजात पाने और अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं तब ऐसे ही कुछ सवर्ण चेहरे उनकी आवाज बनकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं. जो कि ‘स्वयं को आधुनिक, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, जनवादी और अछूतों के हितैषी मानते हैं.’

चमनलाल बजाज जैसे चरित्र का निर्माण कर लेखिका ने आधुनिक मनुवादियों की खबर ली है. जो सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए एन.जी.ओ. खोलकर अपनी यश में बढ़ोत्तरी करना चाहते हैं और स्वयं को प्रगतिशील सिद्ध करना चाहते हैं. चमनलाल जैसे घोर विडम्बनाकारी पुरूष के माध्यम से लेखिका ने ऐसे सामन्तवादी पुरूषों की भी खोज-खबर ली है जो अपने ही घर की महिलाओं पर मनु द्वारा निर्मित सभी कानूनों को अक्षरशः लागू करता है. ‘चमनलाल भी कुटुम्ब-परिवार की महिलाओं को पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ नियम-बन्धनों में रखने के पक्षधर हैं. उनका मत है, ‘जिस तरह बहती हुई नदी को अनुशासित करने के लिए, ‘दो किनारों की आवश्यकता होती है, तभी वह देश और समाज के लिए लाभकारी हो सकती है, उसी प्रकार समाज में स्त्रियों को भी सामाजिक और नैतिक मर्यादा में रखने के लिए कुछ कठोर बन्धनों में रखना जरूरी है.” (पेज नं. 72)

‘महिला सबलीकरण’ की बात करते हुए आज के कुछ स्त्री सशक्तिकरण के ठेकेदार लफ्फाजी करने से बाज नहीं आते. वे सूरज और चांद की दिशा को बदल सकते हैं, दिन और रात के समय में फेरबदल कर सकते हैं किन्तु वह हर सूरत में महिला सबलीकरण की क्रान्ति लाकर रहेंगे.’ इस तरह के कुछ छद्मवेशधारी पुरूष स्त्री सशक्तिकरण पर चर्चा करते हुए आज भी स्त्री को देवी की संज्ञा देते आ रहे हैं. वह स्त्री को स्त्री के वास्तविक रूप में न देखकर उसकी प्रगति देवी से ही मानते हैं. सन्देश कोठारी, गिरधारीलाल आदि ऐसे ही मुखौटेधारी लोग मिलेंगे.

19वीं सदी में नवजागरण काल में कुछ समाज-सुधारकों ने स्त्री-शिक्षा को लेकर जो दृष्टिकोण अपनाया वह पूरी तरह से सुधारवादी था. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र नवजागरण के उन्नायकों में से एक माने जाते हैं. स्त्री की समस्याओं तथा उनके प्रश्नों को लेकर वह बहुत चिन्तित थे. वह लड़के और लड़कियों की शिक्षा में एक किस्म का भेद भी करते हैं. इस सम्बन्ध में नवजागरण काल पर लिखी अपनी प्रसिद्ध कृति रस्साकशी में आलोचक वीरभारत तलवार जी लिखते हैं कि “भारतेन्दु ने लड़के-लड़कियों की शिक्षा में सिर्फ श्रृंगारिक रचनाओं की दृष्टि से ही भेद नहीं किया, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से भी भेद किया......भारतेन्दु एक ओर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा को हिन्दुस्तानियों के लिए बिल्कुल जरूरी ठहराते थे, दूसरी ओर लड़कियों को इसी ज्ञान-विज्ञान से दूर रखना चाहते थे.” (वीरभारत तलवार: रस्साकशी, पेज नं. 38) नवजागरण काल में हिन्दी पट्टी के कुछ समाजसुधारक स्त्रियों की प्रगति घर की काल-कोठरी तक ही सीमित करके देखना चाहते थे. ‘समाज-सुधारकों की इसी किस्म पर व्यंग्य करते हुए बाद में 1920 में, उमा नेहरू ने अपने एक लेख में लिखा कि भारतीय पुरूष तो पश्चिम का पूरा अनुकरण करते हैं और उसी के आधार पर विकास का अपना मॉडल बनाते हैं, लेकिन चाहते हैं कि उनकी स्त्रियां पूर्वीय ही दिखें.” (वही,पेज नं. 38) भारतेन्दु के लिए स्त्री-शिक्षा का जो मसला था उसपर उनके विचार एक हद तक पारम्परिक और रूढ़िवादी ही नजर आते हैं. बलियावाले भाषण में भारतेन्दु ने स्त्रियों की आधुनिक शिक्षा का विरोध करते हुए कहा, ‘लड़कियों को भी पढ़ाइए, किन्तु उस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती है जिससे उपकार के बदले बुराई होती है.” वह स्त्रियों को किस ढंग से शिक्षा दी जाए, इसे बतलाते हुए अपने उसी भाषण में कहते हैं, “ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल-धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें.” (वही, पेज नं. 39). 19वीं सदी की सुधारवादी सोच 21वीं सदी में भी ठीक उसी तरह कुछ लोगों में मौजूद है, जो स्त्रियों को बस उतनी ही आजादी देने पर विचार करते हैं जितना वो चाहते हैं. जिससे उनके हित और परम्परायें बनी रहें. लेखिका सामाजिक उत्थान में लगे ऐसे लोगों के दोहरे चरित्र को भी बेनकाब करती है. चमनलाल बजाज की संस्था ‘अखिल भारतीय समाज जागृति एवं समस्या निवारण संस्था’ द्वारा आयोजित एक सभा में  आये ए.सी.पी. साहब के इसी प्रकार के दकियानूसी विचारों का कच्चा-चिट्ठा खोलते हुए लेखिका लिखती है- “मैं जानता हूं, दुनिया में अपराध की जड़ है-जर-जोरू और जमीन.....यह औरत ही समस्याओं की सबसे बड़ी जड़ होती है.....यह औरत जब तक कमजोर-अबला है, तब तक इस पर अन्याय होता है लेकिन यहां यह भी विचार करने की बात है-क्या अबला नारी अधिक सबल होकर, दूसरों पर अन्याय नहीं करेंगी? उनकी आज्ञा का उल्लंघन, उनकी इच्छा के विपरीत काम नहीं करेगी? वह आगे बोलते हैं कि ‘इसलिए हमें यहां यह विचार भी करना है कि महिलाओं को कितना सबल बनाया जाए. महिला सबलीकरण के साथ, समाज की शांति का ध्यान रखना जरूरी है. हमारी इस संस्था का काम राष्ट्रीय स्तर का है. अपनी संस्था द्वारा, अपनी सरकार की मदद करना हमारा कर्तव्य है. हमारे देश में, समाज में, महिलाओं को जिस रूप में रखने से अधिक शांति रह सकती है, बस उसी नीति पर चलना चाहिए. अधिक झंझट में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है. नारी सबलता बस इतनी ही हो कि वह घर-गृहस्थी के सभी काम अच्छी तरह सम्भाले.’ (सुशीला टाकभौरे: तुम्हें बदलना होगा, पेज नं. 45) 

लेखिका हिन्दू धर्म के विशेष त्यौहारों तथाले उनमें गढ़े गये मिथकीय चरित्रों पर भी सवाल खड़ा करती हैं. उनके द्वारा रचे गये षड्यन्त्र का भी पर्दाफाश करते हुए होली, दशहरा जैसे हिन्दू पर्व पर अनार्य कुल की मिथकीय चरित्र होलिका के दहन का भी सही पक्ष रखती हैं. दशहरे को हिन्दुओं का त्यौहार माना जाता है किन्तु इस दृष्टिकोण से अलग सुशीला टाकभौरे विजयादसमी के ही दिन डॉ.अम्बेडकर द्वारा ग्रहण की गयी बौद्धधर्म की दीक्षा का भी महत्व समझाती हैं. यह किसी भी दलित महिला लेखिका द्वारा बाबासाहब अम्बेडकर के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराने का पहला स्रोत है. वह लिखती हैं ‘दशहरा के त्यौहार के विषय में हिन्दूधर्म के लोग यह कथा बताते हैं, इसी दिन राम ने रावण पर विजय पाई थी. इस दिन के उपलक्ष्य में वे विजय पर्व मनाते हैं. यह हिन्दूधर्म के मतानुसार कहा जाता है लेकिन बौद्धधर्म के मतानुसार यह कहा जाता है कि कलिंग युद्ध के बाद, सम्राट अशोक ने क्वार माह की दसवीं के दिन, यह प्रतिज्ञा की थी, ‘मैं अब तक साम्राज्य विस्तार के लिए युद्ध करता रहा, अब मैं युद्ध नहीं करूंगा. अब मैं ‘विजया धम्मचक्र’ चलाऊंगा.’ इस तरह दशहरा का सही नाम ‘विजयादसमी’ है. इस ‘विजय धम्मचक्र दिवस’ को अपने अनुकूल मानकर डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने इसी दिन बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी.’ (पेज नं. 58) लेखिका इसके अतिरिक्त छत्रपति शाहू महाराज, महात्मा ज्योतिराव फुले सावित्रीबाई फुले, पेरियार रामास्वामी आदि से प्रेरणा लेते हुए गौतम बुद्ध के महान संदेश ‘अप्प दीपो भव’ का आदर्श रखती है.


इसी ‘अप्प दीपो भव’ के मूलमंत्र से अपनी मंजिल तय करती है- महिमा. महिमा जैसी जागरूक और चेतनाशील पात्र की रचना कर लेखिका ने उसके माध्यम से दलित आन्दोलन और महिला आन्दोलन की वैचारिकी को सही दिशा में ले जाने और उसका प्रचार-प्रसार का काम किया है. इसके साथ ही साथ स्त्री विमर्श बनाम दलित स्त्री विमर्श जैसे प्रश्न को भी उठाती हैं. दलित स्त्री के आदर्शों और दलित महिला आन्दोलन, संगठन पर भी प्रकाश डाला है. बहुजन समाज की महिलाओं के आन्दोलन की दिशा और दशा को सुदृढ़ करने का सही विचार दिया है. लेखिका स्त्री को सामाजिक समस्याओं से भागने का संदेश न देकर उसमें रहकर बदलाव की बात करती है. ‘राहुल सांकृत्यायन ने कहा था ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ इसी विचार की पुष्टि सुशीला टाकभौरे भी अपने उपन्यास में करती हैं.

लेखिका सभी वर्ग की महिलाओं की समस्याओं से चिन्तित नजर आती है. उसका मानना है कि ‘यथार्थ में सम्पूर्ण महिला वर्ग ही शोषित-पीड़ित और दलित है. महिलाओं को अपनी जाति और धर्म का गर्व छोड़कर, जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था का विरोध करना चाहिए. समाज में हो रहे स्त्रियों के खिलाफ हिंसा का वर्णन करते हुए समूचे स्त्री-समाज को इसके लिए एकजुट करने का आवाह्न देती हैं. जातिविहीन समाज में ही समता, सम्मान और मुक्ति की बात सम्भव हो सकती है.” लेखिका का उत्स समग्रता में है. वह सभी वर्ग की महिलाओं को साथ लेकर चलने की बात करती है. वह साझे-चूल्हे का मूलमंत्र देती है जिससे सफलता अवश्य हासिल होगी, सभी को सम्मान और अधिकार मिलेंगे, “बहन, हमें अपनी मंजिल जरूर मिलेगी. वह समय जरूर आएगा, जब मंजिलें हमारे कदम चूमेंगी.”

“गरीबी नहीं सामाजिक बेइज्जती अखरती है.”-कंवल भारती 

आर्थिक समानता बनाम सामाजिक बराबरी जैसे मुद्दे को भी लेखिका ने रेखांकित किया है. डॉ. अम्बेडकर तथा दलित साहित्य के समक्ष यह बहुत बड़ा प्रश्न है कि सामाजिक बराबरी के बिना दलितों को सम्मान हासिल होने वाला नहीं है सिर्फ आर्थिक आजादी एक कोरी कल्पना है जिससे केवल ऊंची जातियां ही लाभान्वित हुईं. इसलिए लेखिका ने मार्क्सवाद बनाम अम्बेडकरवाद का प्रश्न भी उठाया है.

धीरज कुमार जैसे प्रगतिशील चरित्र के माध्यम से लेखिका ने समाज में लोगों के अन्दर बैठे हुए जातिगत भावना का भी सहज चित्रण किया है कि किस तरह कुछ गैर-दलित दलितों के ‘सरनेम’ से इतने परेशान हैं कि जब तक उन्हें उनके पूर्वजों तक का भेद न मालूम चल जाय तब तक वे चैन से नहीं बैठ सकते. ‘वे धरती पर प्रत्येक प्राणी की जाति का पता लगाने के लिए ही इस हिन्दू धर्म में मानो पैदा हुए हों’ बहुत ही सधे ढंग से लेखिका ने इस विद्रूपता का चित्रण किया है. धीरज कुमार और ऊषा बजाज के संवादों के माध्यम से ‘नारी सबलीकरण’ का औचित्य क्या है, उसके रूप क्या हैं? इस नारे से कितनी नारियां सबल हुई हैं, महिलाओं के सबलीकरण के विरूद्ध कौन सी समस्याएं हैं, उसके सफल न होने के पीछे कौन-कौन से कारण हैं इत्यादि प्रश्नों को भी उठाने का लेखिका ने सफल प्रयास किया है. चमनलाल बजाज जैसे प्रगतिशील और समाज सुधारक तथा नारियों के हितैषी अपने घर की महिलाओं को ही बाहर नहीं निकलने देते, किन्तु उनकी बहन ऊषा बजाज का अपने भाई के दोहरे चरित्र  के प्रति बहुत आक्रोश है. ऊषा बजाज के माध्यम से सुशीला टाकभौरे ने नारी सबलीकरण जैसे गम्भीर मुद्दे के सार्थक न होने की सबसे बड़ी चिन्ता व्यक्त की है ...“ऊषा आत्मग्लानि महसूस कर रही थी. उसने थोड़ा झिझकते हुए कहा, “सर सब कुछ बदल रहा है, समाज में स्त्रियों की स्थिति बदल रही है. नारी स्वतन्त्रता बढ़ रही है. नारी मुक्ति की बातें कही जा रही हैं मगर हमारे घर में कुछ नहीं बदला. अब भी पहले जैसी...” कहते-कहते अचानक ऊषा की आंखे सजल हो गयीं, साथ ही, उसका चेहरा तमतमा गया.” (पेज नं.68) लेखिका की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह अपनी स्त्री-पात्रों को स्त्री-चेतना से लैस करती हैं ‘मैं इतनी बड़ी हूं, कॉलेज की छात्रा हूं, फिर भी कितने बन्धनों में रखी जाती हूं? अब मैं अपने ऊपर लगाए गये सब बन्धन तोड़ दूंगी.’(पेज नं.69)....समाज में होने वाले भेदभाव के विरूद्ध ऊषा खुलकर बोलती है.... ‘मैं ऐसे नियम-बन्धनों को तोड़ देना चाहती हूं, जो स्त्रियों को गुलाम बनाकर रखते हैं, जो समाज को ऊंच-नीच का भेद करना सिखाते हैं, जो कुछ लोगों का अपमान करते हैं, मैं ऐसे लोगों को मुंहतोड़ जवाब देना चाहती हूं.”   


सामाजिक भेदभाव, गैर-दलितों द्वारा दलितों का अन्धाधुन्ध शोषण, शिक्षण संस्थाओं और छात्रावासों में सवर्णों द्वारा जातिगत उत्पीड़न आज भी खुले-आम जारी है. चाहे आप कितने बड़े से बड़े और ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाये जाति पीछा नहीं छोड़ती. इसी किस्म का भेदभाव महिमा और धीरज को अपने महाविद्यालय में तथा आस-पास के वातावरण में सहना पड़ता है. उच्च जाति की कुछ शिक्षिकाएं और स्टाफ उन्हें समय-समय पर उनकी निम्न जाति के होने का बोध कराते रहते हैं.

लेखिका ने धीरज के पिता हरिश्चन्द्र के माध्यम से मैला-प्रथा, समूचे दलित समुदाय और सफाई कर्मियों की बदहाल जीवन-व्यवस्था, उन्हें कोई सुविधा मुहैया न कराना और न ही उनके जीवन की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेना तथा सरकार और प्रशासन की पूरी लापरवाही जैसे अहम सवालों को भी उठाया है. मैला उठाने के लिए आज भी दलितों को ढकेला जाता है. कितने कानून बनने के बाद भी यह प्रथा बदस्तूर जारी है. कुछ लोगों का मानना है कि स्थितियां सुधरी हैं दलितों से अब यह काम नहीं लिया जाता. देखा जाय तो दलितों की स्थितियों में एक नया मोड़ आया है. पहले उन्हें मजबूरन यह काम करना पड़ता था और आज सच्चाई यह है कि नगर-निगमों में सार्वजनिक शौचालयों में कार्यरत सफाई कर्मचारियों में से सभी दलित ही हैं, आज सरकार और समाज की सेवा के लिए उन्हें यह काम करना पड़ता है. स्थितियां पहले से ज्यादा जटिल कर दी गयी हैं, उत्पीड़न के स्रोत अलग हो गये हैं.

चमनलाल बजाज जैसे सवर्ण और महिमा जैसी दलित पात्र के सम्बन्धों के माध्यम से लेखिका ने एक तरफ उनमें सहज प्रेम तथा आकर्षण को दिखाया है और दूसरी तरफ चमनलाल के उस व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डाला है जो अपने उम्र के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जिन्हें शादी के लिए एक लड़की की तलाश थी, महिमा के मिलते ही उनकी यह तलाश भी पूरी हो गयी है. किन्तु गम्भीर प्रश्न यह है कि लड़की उनकी जाति से नहीं है, फिर भी महिमा के प्रेम के अलावा वो कुछ देखना-सुनना तक नहीं चाहते ‘प्रेम के समक्ष वे जाति-पांति, ऊंच-नीच, भेदभाव को भी छोड़ने के लिए तैयार हैं.’

चमनलाल के विवाह जैसे प्रसंग से लेखिका हिन्दुओं के उस चरित्र को भी बेनकाब करती हैं जो लाभ के लिए दलितों से विवाह रचाते रहे हैं. ‘उच्चवर्ण के लोग शूद्र कन्या को अपनी शूद्र पत्नी बनाकर, अपने साथ रख सकते हैं. इतना अवश्य है कि इस शूद्र पत्नी के अधिकार सवर्ण पत्नी से कम रहेंगे.’ (पेज नं.111) वह हिन्दू धर्म के पौराणिक आख्यान का भी सहारा लेती हैं जिनमें महाभारत की घटना प्रमुख है. इस तरह वह उच्च वर्ण के लोगों की साजिश का भी उल्लेख करती हैं.

चमनलाल और महिमा के अन्तरजातीय विवाह से लेखिका ने महिमा के उस विचार को अधिक सराहा है जिसमें महिमा अपने जाति की लड़कियों और बेरोजगार लड़कों के उत्थान और प्रगति की बात सोचती है. अपनी शादी की ही तरह वह अपनी जाति की अन्य लड़कियों के संबंध में सोचती है ‘अगर हमारी दलित जातियों की लड़कियां सवर्ण परिवार के समझदार लड़कों से विवाह करने लगें, तो समाज में सामाजिक समानता जल्दी आ सकती है. धीरे-धीरे घर की व्यवस्था में घर की स्त्री का ही आदेश माना जाने लगता है. जब हमारी दलित लड़कियां सवर्ण परिवार की बहू बनकर, अपने आदेश से सवर्णों को अनुशासित करने लगेंगी, तब किसकी मजाल है, जो वे अपने घर की दलित महिला के दलित समाज की उपेक्षा कर सके? तब उन सवर्णों के रिश्तेदार दलितों पर अन्याय-अत्याचार करने की बात भी छोड़ देंगे. सवर्णों के साथ रहने से दलितों का सम्मान बढ़ेगा. वे अपनी दलित स्थिति से मुक्त हो सकेंगे, साथ ही वे भी सवर्णों की तरह शिक्षा पाकर, अच्छी नौकरी करके, अपना जीवन स्तर सुधार सकेंगे.’ लेखिका अन्तरजातीय विवाह से दलितों और गैर-दलितों की स्थिति में और विचारों में परिवर्तन लाना चाहती है.

चमनलाल के परिवार द्वारा महिमा को न अपनाना और उसके साथ जातिगत भेदभाव करना, यह उस अन्तरजातीय विवाह की कड़वी सच्चाई को बयान करता है जिसमें लड़की को बहुत कुछ सहना पड़ता है. लेखिका सवर्णों के उस पोल का भी पर्दाफाश करती हैं जो सामाजिक सुधार और प्रगतिशीलता के नाम पर वर्णाश्रम व्यवस्था द्वारा बनाये गये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में से केवल तीन उच्च जातियों से शादी रचाना चाहते हैं, इस व्यवस्था के अनुसार सबसे निम्न माने जाने वाली जाति शूद्र से वे वैवाहिक संबंध नहीं स्थापित करना चाहते, दलितों से तो और नहीं. सवाल यह भी है कि प्रेम के बाद यदि लड़का-लड़की अन्तरजातीय विवाह करते हैं तो चाहे लड़का ऊंची जाति का हो या लड़की उसको भी तमाम सामाजिक नियमों, परम्पराओं और पारिवारिक उलझनों, दबावों का सामना करना पड़ता है जिसका शिकार चमनलाल बनते हैं. ‘बाबूजी बिफरकर बोले, “तुम उसे लेकर यहां से चले जाओ. हम तुम्हारा और उसका मुंह नहीं देखना चाहते. तुम पैदा होते ही क्यों नहीं मर गए? हमारे मुंह पर कालिख पोतने के लिए जन्मे थे?” (पेज नं. 129) इसके अतिरिक्त भाई से उन्हें अपने घर के सदस्यों से अलग होने का दंश भी झेलना पड़ता है ...‘तुम्हें मेहमानखाने में ही रहना होगा. तुम हवेली में पूरे परिवार के साथ नहीं रहोगे. तुम्हारी पत्नी हवेली में कभी कदम रखने की भी हिम्मत नहीं करेगी. हमारे चौके-चूल्हे को वह भ्रष्ट नहीं करेगी. अपने सवर्ण जाति समुदाय में उसे तुम कभी नहीं ले जाओगे. उसके अछूत रिश्तेदारों को कभी अपने घर नहीं आने दोगे. उसकी जाति के विषय में कभी किसी को नहीं बताओगे. सबसे पहले ‘आर्यसमाज पद्धति’ से उसका और अपना शुद्धिकरण करवाओगे.” (वही, पेज नं. 129) युवाओं को आज अन्तरजातीय विवाह के समक्ष कितनी चुनौतियां का सामना करना पड़ रहा है लेखिका ने इस गम्भीर और चिन्तनीय विषय को भी रेखांकित किया है.

हमारे समक्ष यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है कि आज अन्तरजातीय शादियों में किस प्रकार की और किनसे शादियां सम्पन्न हो रही हैं, और कितने प्रतिशत शादियां सफल हो पा रही हैं? क्या ब्राह्मण अपनी लड़की या लड़के का दलितों के घरों में शादी करना चाहता है या फिर अन्य उच्च जातियां दलितों से उसी सहजता से शादी कर रही हैं जितनी अन्य उच्च जातियों में, या फिर रोटी-बेटी सम्बन्धों के नाम पर जातिगत उन्मूलन की बात करना भ्रम है? ‘उच्चवर्णीय समाज में किसी अछूत लड़की को बहू के रूप में स्वीकार करना कितना कठिन कार्य है.’ लेखिका इस पर अपनी चिन्ता व्यक्त करती है. किन्तु सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या अन्तरजातीय विवाह से लोगों के विचारों में परिवर्तन लाना सम्भव है? महिमा द्वारा लेखिका इस प्रश्न का समाधान भी करती है.


एक दलित स्त्री की स्त्री-चेतना को लेखिका रेखांकित करती है. उसके साथ हो रहे दुव्र्यवहार और जातिगत भेदभाव से महिमा का मन बहुत दुखी है किन्तु उसे जरा भी पछतावा नहीं है क्योंकि वह अपने अधिकारों को जानती है. उसके विचार देखने योग्य हैं ,,,“हूं, मुझे हाथ लगाकर तो देखें, हाथ तोड़ दूंगी. कोई मेरा अपमान करके तो देखे, उसके बारह बजा दूंगी. मैं भी दलित आन्दोलन की शेरनी हूं, एक-एक को चीर कर रख दूंगी. होंगे बड़ी जात के, हम भी क्या अब छोटे हैं? हम भी किसी से, किसी बात में कम नहीं हैं. जो मेरे साथ जातिभेद करेगा, उसे जेल की चक्की में पीसने भेज दूंगी.” (पेज नं.132)

दलित स्त्री को वर्गगत, जातिगत और लिंगगत तिहरा अभिशाप सहना पड़ता है. स्त्री-पुरूष असमानता और लैंगिक आधार पर शोषण जैसे मुद्दे को महिमा के वैवाहिक व पारिवारिक सम्बन्धों के माध्यम से दिखाया है. स्त्री-पुरूष समानता की बात करने वाले चमनलाल स्वयं अपने घर में स्त्रियों के साथ लैंगिक भेदभाव करते हैं जिसका शिकार उनकी पत्नी महिमा होती है. घर में ही नजरबन्द रहना उसकी मजबूरी बन गयी है इसलिए कुछ पल उसके मन में यह विचार भी आने लगते हैं “जो महिमा ‘स्त्री-पुरूष समानता आवश्यक है’ विषय पर अपने क्रांतिकारी विचारों के उदाहरण देकर अपनी बात समाज से मनवा रही थी, आज वही, ‘स्त्री-पुरूष विषमता’ या ‘लिंग भेद’ की शिकार बना दी गयी है.’ (पेज नं.136)

किन्तु समय आने पर महिमा अपनी क्रांतिकारी दलित स्त्री चेतना का भी परिचय देती है. वह स्त्रियों के शोषण के लिए पुरूषों को दोषी ठहराती है. उसका कहना है कि “जब तक पुरूषों के विचार और व्यवहार में फर्क रहेगा, तब तक महिलाएं खुले दिल और दिमाग के साथ सोच नहीं पाएंगी. वे अपने सीमित कठघरे से बाहर निकल नहीं पाएंगी. इसका जिम्मेदार पुरूष समाज है. पुरूष नारी स्वतन्त्रता की बहुत बड़ी-बड़ी बातें करते हैं मगर सही मायने में वे स्त्रियों की सबलता से डरते हैं, कतराते हैं. उन्हें लगता है कि वे अपनी महिलाओं को घर में कैद रखकर ही, महिलाओं का उद्धार कर लेंगे.” (पेज नं.150) इस प्रकार महिमा नारी-शक्ति का प्रमाण देती है. महिमा की वजह से चमनलाल की ‘संस्था अखिल भारतीय समाज जागृति एवं समस्या निवारण संस्था’ आज अपने उत्तरदायित्व व उद्देश्य को प्राप्त करने में गतिशील हो पायी है.

धीरज द्वारा वाल्मीकि बस्तियों में जाकर भंगी समुदाय की बदहाल स्थिति को सुधारने तथा उन्हें प्रशासन की तरफ से शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी आदि सुविधायें मुहैया कराने में मदद करना लेखिका के उस दृष्टिकोण की तरफ इशारा करता है जहां अम्बेडकर का सपना साकार होता नजर आता है. बस्ती के कुछ लड़कों की सहायता से वह इस काम को सफल बनाता है. धीरज और महिमा साथ-साथ अछूत दलित बस्तियों और पिछड़े-शोषित, दमित-दलित जातियों की स्थिति को सुधारने तथा उनमें जागरूकता फैलाने का काम करते हैं. इसके अतिरिक्त लेखिका ने बाल-शोषण जैसे मुद्दे को उठाते हुए उसके उन्मूलन पर विचार व्यक्त किया है.

अन्तरजातीय विवाह से ही निकलेगा रास्ता : समाज में जाति अभी भी व्याप्त है. जाति के सफाये के लिए डॉ.अम्बेडकर ने रोटी-बेटी के सम्बन्धों पर जोर दिया. २१वीं सदी में अन्तर्जातीय विवाह हो रहे हैं किन्तु प्रश्न यह है कि लोग जाति-पांति से ऊपर उठकर ये विवाह कर रहे हैं या फिर वर्णाश्रम व्यवस्था में ऊपर से तीन वर्णों के अन्दर तो शादियां हो रही हैं किन्तु निम्न मानी जाने वाली दलित-अछूत जाति में आज भी कोई रोटी-बेटी संबंध नहीं करना चाहता. तमाम अटकलों के बाद प्रेम के कारण जाति के बन्धन टूटते नजर आते हैं और बाद में वह विवाह में भी बंधते हैं जिससे आज अन्तरजातीय विवाह हो रहे हैं. चाहे वह सवर्ण जाति के चमनलाल और अछूत हरिजन महिमा का विवाह हो या फिर धीरज और ऊषा बजाज का विवाह या फिर चमार जाति की माया और वाल्मीकि जाति का नीरज हो.

जाति जोंक की तरह है जो एक बार चिपक जाती है तो छूटने का नाम नहीं लेती. लेखिका इसका सहज ही वर्णन करती है- धीरज कुमार और ऊषा बजाज के विवाह के विषय में चमनलाल और उनके परिवार वाले अधिक चिन्तित हैं. क्योंकि उन्होंने एक अछूत हरिजन से शादी की है इसलिए वह और उनके परिवार वाले दुबारा ऐसी गलती नहीं दोहराना चाहते हैं. धीरज कुमार की जाति का पता घर वाले और वह स्वयं ऐसे लगाते हैं मानो कोई पुलिस किसी बड़े अपराधी की खोज बहुत समय से कर रहा हो और वो बहुत ही अनिवार्य और महत्वपूर्ण हो. जैसे धीरज का सरनेम पता लगाना. समाज के ऐसे बहुरूपियों की खोज-खबर लेने में लेखिका पीछे नहीं है. ऊषा का एक तरफ धीरज से प्रेम करना और दूसरी तरफ उसका सरनेम पता लगाना, सवर्णों की ओछी मानसिकता को दर्शाता है. जैसे कि उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण लड़का का लड़की से शादी न करके सरनेम से शादी करना हो.

‘वर्णभेद जातिभेद के विरूद्ध सामाजिक समता’ जैसे मुद्दे पर सेमिनार के बहाने सवर्णों का और दलितों की समाजिक एकता और विषमता के विषय में किस प्रकार के विचार हैं लेखिका इसको भी स्पष्ट करती चलती है. चमनलाल जैसे आर्यसमाजियों की धीरज पोल खोलता है तथा उसकी खामियों को सबके समक्ष रखता है. ‘आर्यसमाजी केवल सवर्णों की उच्च जातियों के बीच भेदभाव न मानने की बात करते हैं. यदि आप लोग यथार्थ में समतावादी हैं, तो आज बनिया और वाल्मीकि अर्थात सवर्ण और अछूत के बीच का भेद मिटाकर, अपने समतावादी विचारों का परिचय दीजिए.” (पेज नं. 233) धीरज यहां सवर्णों के उस जातिवादी चेहरे से पर्दा हटाता है जिनकी कथनी और करनी में अन्तर है.

सुशीला टाकभौरे अन्तरजातीय विवाह से समाज में ऊंच-नीच, जांति-पांति जैसे भेदभाव का उन्मूलन देखती हैं. उनका मानना है कि ..“अन्तरजातीय विवाह होने चाहिए. इसी से जातिभेद, वर्णभेद मिटेगा और सामाजिक एकता आएगी. ऐसे कार्यक्रमों में भाषण देने की अपेक्षा ऐसे कार्य होने चाहिए जिससे समाज के सामने जीता-जागता उदाहरण पेश किया जा सके.” (पेज नं. 223) इसके साथ ही उन अविवाहित स्त्रियों के प्रति भी अपनी चिन्ता व्यक्त करती है जिनका समय रहते और योग्य वर न मिल पाने की वजह से विवाह नहीं हो पाया. इसके लिए लेखिका सन्ध्या के माध्यम से अपने विचार प्रकट करती हैं “यदि किन्हीं कारणों से बेटी का विवाह अपने जाति-समाज में नहीं हुआ और बेटी की उम्र बढ़ती जा रही है, तब ऐसी स्थिति में परिवार के लोगों का कर्तव्य है, वे अपनी बेटी के विवाह के लिए अखबारों में लिखें. तब जरूर बिनब्याही बेटियों के लिए भी घर बैठे वर आएंगे. इसके लिए जरूरी है, यह भी लिखा जाए-जाति का कोई बन्धन नहीं है.” (पेज नं.238)  यहां लेखिका अविवाहित स्त्री की पीड़ा का संज्ञान लेती है. इसके लिए वह अपने जाति से बाहर शादी न करने वाले लोगों तथा उनकी पिछड़ी मानसिकता को दोषी ठहराती है. उचित और योग्य वर का अपने जाति में न मिलना लेकिन कुछ लोगों द्वारा जाति से इतर भी शादी न करना इस प्रकार की समस्या को जन्म देता है. इस मुद्दे को भी लेखिका ने बखूबी उठाया है.

सुशीला टाकभौरे अन्तरजातीय विवाह के द्वारा ही जातिप्रथा, दहेज प्रथा दलित-स्त्रियों के शोषण दमन का सफाया मानती हैं. सामाजिक समरसता का उत्स अन्तरजातीय विवाह के रास्ते ही निकलेगा. चमनलाल की संस्था द्वारा आयोजित सफल सेमिनार के माध्यम से वह धीरज और ऊषा का अन्तरजातीय विवाह सम्पन्न कराती हैं तथा ऐसे मनुवादियों के विचारों में परिवर्तन लाती हैं जो सदियों से मनु के नियम-कानूनों तथा रूढ़ियों-परम्पराओं और अपनी जाति के खोल में ही सिमटे हुए थे. जो अपनी अवनति के साथ युवा पीढ़ी के सपनों और उनके जीवन को भी नरक में डाल देते हैं. इस उपन्यास की सबसे बड़ी खूबी यह है कि लेखिका ने अपने नायक-नायिकाओं को अम्बेडकरवादी चेतना से ओत-प्रोत रखा है जिसके जरिये वे विषमतामूलक समाज में मनुवादियों के विचारों में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन लाते हैं. रोटी-बेटी संबंध से ही जातियां टूटेंगी- बाबासाहब अम्बेडकर के महान स्वप्न को साकार करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. समस्या को उठाकर समाधान भी देना लेखिका तथा उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है.