Tuesday, August 2, 2016

'अभिव्यक्ति के विरोध की अभिव्यक्ति' का भी उतना ही संवैधानिक अधिकार है

यह ठीक है कि 'अभिव्यक्ति के विरोध की अभिव्यक्ति' का भी उतना ही संवैधानिक अधिकार है जितना आर्टिस्टिक अभिव्यक्ति का। लेकिन यह विरोध एक सीमा तक हो तो ही संवैधानिक रहता है। निर्देशक ने अपनी अभिव्यक्ति कलात्मक ढंग से कर दी। आप उसके विचारों से सहमत नहीं, कोई बात नहीं। आप तर्कों और प्रमाणों से उसकी बात का विरोध कर सकते हैं। लेकिन यह कहाँ तक ठीक है कि आप उसकी अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करने की माँग करें। वो भी केवल इस आधार पर कि उसका विचार आपके विचार के अनुरूप नहीं है! विरोध करके जबरन अपनी बात मनवाना कहाँ तक उचित है? कल बजरंग दल के नवयुवकों नें यहाँ कानपुर के एक मॉल में तोड़ फ़ोड़ की। पोस्टर फाड़े। दूसरी जगह से भी ऐसी ख़बरें आ रही हैं। वो भी ये सब तब जब हाईकोर्ट ने भी कह दिया है कि अगर आपको फ़िल्म नहीं पसन्द तो मत देखें।
एक तरफ आप कहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए। मगर इन हालातों में कोई कैसे अभिव्यक्ति करेगा? संभव है इसीलिए बहुत से निर्देशक इन मुद्दों से दूर ही रहना पसंद करते हैं, तभी आजतक दोनों हाथों की उँगलियों से गिनने लायक अभिव्यक्तियाँ भी नहीं हैं। ऊपर से विरोध का कारण भी समझ से परे है। वह गलत है यह तो ठीक है, मगर आप सही हैं इसे कैसे प्रमाणित करेंगे?
धर्म की कोई बात हुई नहीं कि आपकी धार्मिक भावनायेँ आहत हो जाया करती हैं। आप हमसे अपेक्षा रखते हैं कि हम आपके धर्म, जो कि विचारों का एक संकलन है, का सम्मान करें। मगर आप यह क्यों भूल जाते हैं कि आपको भी उसी नाते हमारे विचारों का सम्मान करना चाहिए। हमारी भी भावनायें हैं, जो आहत हो सकती हैं। मगर यह इन विरोध से नहीं, बल्कि आपके उन कृत्यों से जिनसे हमारे मूल अधिकार छिन जाने का ख़तरा रहता है! और ऐसे कृत्य बिना किसी अपवाद के केवल आपकी ओर से ही देखने को मिलते हैं।
अपने अपने सापेक्ष दोनों इस बात पर अटल हैं कि वही सही हैं। फिर आपको यह अधिकार किसने दे दिया कि आप जज करें और कहें कि "मैं ही सही हूँ आप गलत हैं?" दोनों को केवल अपनी बात रखने का अधिकार हो सकता है, तर्कों तथ्यों से अपनी बात को मजबूत करने का भी अधिकार हो सकता है। लेकिन अगर किसी को आपका विचार पसंद नहीं आता है तो उसपर जोर जबरदस्ती कैसी? जिसे जो पसंद आएगा, उसे स्वीकार करेगा। आपको अपने विचारों को जबरदस्ती ही किसी पर नहीं थोपना चाहिए, है न? फिर जब आज कोई अपनी बात रखता है, तो आपको इतनी परेशानी क्यों होने लगती है? आप तो हजारों वर्षों से अपनी बात रखते ही आ रहे हैं, तब किसी ने आपका विरोध नहीं किया। जिसने किया था, तब भी आपने उसे दबा दिया था और आज भी आप यही चाहते हैं।

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