Friday, August 26, 2016

सौ सौ झूठी बातों पर भी सच्चाई का दावा है

इस पावन धरती पर फिर मानवता का उद्घोष बजेगा |
दीपक की ज्वाला में प्रतिक्षण अहंकार अज्ञान जलेगा ||
तुम कहते हो तिमिर प्रबल है,
दीप आस में आह विकल है |
मानवता के रक्तित शव पर,
दानवता का खड़ा महल है |
पर पापों के बढ़ने से ही, होता ईश्वर का अवतार |
बिन पापों के कैसे पूजे ईश्वर को सारा संसार |
मोक्ष-दायिनी अमर धरा पर पुनः सत्य का बीज फलेगा |
दीपक की ज्वाला में प्रतिक्षण अहंकार अज्ञान जलेगा ||१||
तुम कहते हो भौतिकता है,
जीवन अविरल दौड़ रहा है |
धन-लिप्सा की आंधी में,
मानव का मन भी डोल रहा है |
कभी तुम्हारे मन ने भी, हो व्यथित, प्रश्न ये उगले हैं ?
जिन्हें समझते मानव हम, वे केवल मानव पुतले हैं |
इक दिन हर मानव के मन में मानवता का बीज फलेगा |
दीपक की ज्वाला में प्रतिक्षण अहंकार अज्ञान जलेगा ||२||
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लेकर चला गया मन मोरा,
जाने तन क्यों छोड़ गया?
एक प्रेम का दीप जलाकर,
जीवन पथ ही मोड़ गया।।
गोरे तन के कोरे मन में,
श्यामल छवि का वास हुआ।
प्रेम-सुधा में बंधी चेतना,
अन्धकार का नाश हुआ।
मलिन ह्रदय का मैल हटाकर,
माया का भ्रम तोड़ गया।।
एक प्रेम का दीप जलाकर,
जीवन पथ ही मोड़ गया।।1।।
मन का मैल हटाकर देखा,
मुझमे-उसमे भेद न था।
मन से हुआ मिलन जब मन का,
अँधियारा भी शेष न था।
मन में अपना रूप बनाकर,
सत्य मार्ग से जोड़ गया।।
एक प्रेम का दीप जलाकर,
जीवन पथ ही मोड़ गया।।2।।
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जरा सा और सोने दो |
अभी तो रात बाकी है ||
हो रही आँखें उनींदी ,
स्वप्न में अब डूब जाऊं |
कुछ घडी भूलूं जगत को,
जब दिवा से उब जाऊं |
जरा स्वप्नों में खोने दो,
अभी तक आस बाकी है |
जरा सा और सोने दो |
अभी तो रात बाकी है ||१||
चल दिए अब तुम कहाँ ?
कुछ प्रहर का संग तो हो |
दो घड़ी को और ठहरो,
शून्यता यह भंग तो हो |
जरा सा और जीने दो,
अभी तक साँस बाकी है |
जरा सा और सोने दो |
अभी तो रात बाकी है ||२||
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रंग-भूमि यह कर्म-भूमि है|
देव-भूमि यह तपस-भूमि है|
अतीव-सुन्दर भरत-भूमि यह,
मातृ-भूमि है, पर्व-भूमि है||१||
जीवन में हैं जितने रंग|
सब मिलते पर्वों के संग|
कहीं हंसी है, कहीं भाव है,
कहीं समर्पण औ सत्संग||२||
कभी पर्व जैसे आराधन,
जन-गण मिलकर गायें वन्दन|
माता और देवता पूजन,
से जग महके जैसे चन्दन||३||
प्रेम ठिठोली की है होली|
दीपोत्सव दीपों के टोली|
रक्षा-बन्धन, विजया-दशमी,
सब में एक प्रेम की बोली||४||
आओ सबको गले लगा लें|
मिल-जुल सारे पर्व मना लें|
अंधियारा मन का मिट जाए,
मन में प्रेम का दिया जला लें||५||
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वेदनाओं के चरम में, जो हृदय से स्वर निकलते,
काव्य बनकर के धरा में, वे अमर होकर विचरते|
है जगत की रीत कासी?
भावना हो रही बासी|
पर हृदय की पीर साँची,
गीत में गुंथ मुस्कुराती|
जब हृदय में वेदना से, शब्द झर-झर के निकलते,
काव्य बनकर के धरा में, वे अमर होकर विचरते||१||
सघन हो कितना अँधेरा,
तिमिर ने भी मार्ग घेरा|
गीत ऐसे पथ दिखाए,
रात्रि में जैसे सवेरा|
छन्द के इन बन्धनों में, चेतना के स्वर मुखरते|
काव्य बनकर के धरा में, वे अमर होकर विचरते||२||
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नारी तेरे कितने रूप,
कितना छाँव कहाँ तक धूप??
नारी तेरे कितने रूप|
कभी रूप माता का लेकर,
तुमने तन में प्राण दिया|
जीवन संभले, जीवन संवरे,
तुमने अमृत पान दिया|
कितने त्यागों, बलिदानों से,
पूरित है तेरा यह रूप?
नारी तेरे कितने रूप||१||
चंदा सी शीतलता तुझमे,
तू ही चंडी रूप है|
तुझमे भार्या, तुझमे पुत्री,
तुझमे मातृ स्वरुप है|
सूर्य प्रभा मण्डल सा चहुँदिशि,
जग में दमके तेरा रूप|
नारी तेरे कितने रूप||२||
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चल रहे जाने कहाँ कब से कभी समझा कोई?
फिर नया आकाश दो, आने को है सपना कोई||
फडफडाते चेतना के पर, इन्हें आकार दो|
काल भी यही रोकना चाहे, उसे दुतकार दो|
आग जो मन में बसी, उसको कलम की धार दो,
स्वप्न जो है बंद आँखों में उसे साकार दो|
जो अचेतन हैं, उन्हें कब तक कहे अपना कोई?
फिर नया आकाश दो, आने को है सपना कोई||१||
कल कभी आये नहीं, चाहे स्वयं को हार दो|
क्षण अभी है आज है, जीवन इसी पर वार दो|
आज अनगढ़ पत्थरों को मूर्ति का उपहार दो|
जो तुम्हारे हैं, उन्हें अब स्वप्न का संसार दो|
लक्ष्य तो संघर्ष से ही जूझकर मिलना कोई|
फिर नया आकाश दो, आने को है सपना कोई||२||
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नयन में यह धार कैसी?
कर्म पथ में हार कैसी?
कंटकों को भी बहा दे,
अश्रु की हो धार ऐसी||
क्या सवेरा, रात क्या है?
नियति का प्रतिघात क्या है?
थक गए जो, रुक गए जो,
लक्ष्य की फिर बात क्या है?
अश्रु या मोती नयन के,
क्यों नियति पर है बहाना?
कल हमीं थे, आज हम है,
जूझना, है आजमाना|
राह को ही वर लिया तो
फिर नियति की मार कैसी?
कंटकों को भी बहा दे,
अश्रु की हो धार ऐसी||
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हे जननी, हे जन्मभूमि, शत-बार तुम्हारा वंदन है|
सर्वप्रथम माँ तेरी पूजा, तेरा ही अभिनन्दन है||
तेरी नदियों की कल-कल में सामवेद का मृदु स्वर है|
जहाँ ज्ञान की अविरल गंगा, वहीँ मातु तेरा वर है|
दे वरदान यही माँ, तुझ पर इस जीवन का पुष्प चढ़े|
तभी सफल हो मेरा जीवन, यह शरीर तो क्षण-भर है|
मस्तक पर शत बार धरुं मै, यह माटी तो चन्दन है|
सर्वप्रथम माँ तेरी पूजा, तेरा ही अभिनन्दन है||१||
क्षण-भंगुर यह देह मृत्तिका, क्या इसका अभिमान रहे|
रहे जगत में सदा अमर वे, जो तुझ पर बलिदान रहे|
सिंह-सपूतों की तू जननी, बहे रक्त में क्रांति जहाँ,
प्रेम, अहिंसा, त्याग-तपस्या से शोभित इन्सान रहे|
सदा विचारों की स्वतन्त्रता, जहाँ न कोई बंधन है|
सर्वप्रथम माँ तेरी पूजा, तेरा ही अभिनन्दन है||
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कैसे सत्य सुनायें साथी, चारों ओर दिखावा है|
सौ सौ झूठी बातों पर भी सच्चाई का दावा है||
दुनिया का विस्तार हुआ है,
धन का तो अम्बार हुआ है|
छोटी छोटी बातों में भी,
अपना ही व्यापार हुआ है|
शिक्षा की तो बात न पूछो,
उसमे बहुत छलावा है||
सौ सौ झूठी बातों पर भी सच्चाई का दावा है||१||
चल रहे हैं, जल रहे है,
किस भंवर में पल रहे है|
लक्ष्य क्या है? भ्रांतियां हैं,
भ्रांतियों में गल रहे है|
अन्तर में पशुता ही देखी,
जीवन एक दिखावा है||
सौ सौ झूठी बातों पर भी सच्चाई का दावा है||२||
बहुत चले हैं अब तक जग में,
मगर नहीं कुछ आस दिखी|
अब तक तो सबकी आँखों में,
भूख दिखी है, प्यास दिखी|
जहाँ प्यार की उम्मीदें थीं,
वहां द्वेष का लावा है||
सौ सौ झूठी बातों पर भी सच्चाई का दावा है||३||

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