Friday, August 19, 2016

समाज

महान देशभक्त लाला लाजपतराय ने कहा था ''क्रान्तियों और क्रान्तिकारी आन्दोलन तो सामाजिक सच्चाईयाँ हैं, इनके बिना समाज कभी प्रगति नहीं कर सकता है।''                           
 आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता के विकास के लिये ब्रिटिश शासन और ''फूट डालो और राज करो'' की उनकी नीति जिम्मेदार है लेकिन ''फूट डालों और राज करो'' की नीति सिर्फ साम्प्रदायिकता के स्तर पर ही व्यक्त नहीं हुई, उस समय भारतीय समाज में जो विभाजन मौजूद थे उन सामाजिक विभाजनों को भी इसलिये प्रोत्साहित किया गया ताकि राष्ट्रीय एकता के उदय को रोका जा सके एक अंचल को दूसरे अंचल के खिलाफ, एक जाति को दूसरे जाति के खिलाफ, लड़ाकुओं को नरम पंथियों के खिलाफ, वामपंथियों को दक्षिण पंथियों के खिलाफ और यहाँ तक कि एक वर्ग को दूसरे वर्ग के खिलाफ भिड़ा देने की कोशिश की गई, वस्तुत: स्वतंत्रता संग्राम के आखिरी दौर में उपनिवेशवाद का यही मुख्य स्तम्भ बन गया, इसमें कोई संदेह नहीं है कि साम्प्रदायिकता को औपनिवेशिक हुकूमत का शक्तिशाली समर्थन नहीं मिला होता, तो उसका इस हद तक विकास नहीं हुआ होता कि वह देश को दो टुकड़ों में बाँट सके।                                                             ''साम्प्रदायिक प्रचार के प्रभाव में आकर लोग अपने शोषण,अत्याचार और पीड़ा के वास्तविक स्त्रोत को पहचानने में असमर्थ हो जाते हैं और उनके एक छदम साम्प्रदायिक कारण की कल्पना कर लेते हैं।''  
देश के अनेक राजनीतिक नेता समाज में चल रही उथल-पुथल को समझते हैं। लेकिन अपने स्वयं के तथा दल के स्वार्थों पर आंच न आए, इस कारण वे विभिन्न जातियों को आपस में लड़ाते रहते हैं। इसी कारण राजकीय शक्ति का भी बिखराव नजर आता है। अन्य कुछ राजनीतिक नेताओं को समाज के भीतर क्या चल रहा है, इसका वास्तविक ज्ञान नहीं होता।
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समाज बड़ा परिवार है. अनेक परिवारों से मिलकर बनी अमूर्त्तन व्यवस्था. व्यक्ति उसकी मूर्त्त एवं जीवंत इकाई है. दोनों परस्पर निर्भर, एकदूसरे के लिए अपरिहार्य हैं. अकेला रहना, समाज से पूरी तरह कट जाना किसी के लिए संभव नहीं है. दूसरों के साथ तालमेल बनाकर रहना उसकी विवशता है. इसलिए मनुष्य समाज की शरण में आता है. इस तरह समाज व्यक्ति का स्वैच्छिक वरण है. न केवल इसलिए कि व्यक्तिमात्र की शारीरिक एवं बौद्धिक सीमाएं हैं, जो उसको दूसरे व्यक्तियों, प्रकृति तथा जड़जंगम पर निर्भर बनाती हैं. बल्कि इसलिए भी कि एक संवेदनशील बौद्धिक इकाई के रूप में हर मनुष्य बहुतसे हुनर और कलाएं अपने भीतर छिपाए रखता है. समाज में रहकर उसे अपने उस हुनर को तराशने तथा कलाओं का प्रदर्शन करने का अवसर मिल जाता है. इस तरह समाज मानव व्यक्तित्व को संपूर्णता की ओर ले जाने तथा उसके अस्मिताबोध को सुरक्षितसंवर्धित करने का माध्यम बन जाता है. व्यक्तिमात्र की इच्छा होती है कि बड़े परिवार के रूप में समाज उसकी भावनाओं का सम्मान करे. उसका व्यक्तित्वलोप न होने दे. थामस पेन के अनुसार व्यक्ति समाज का सदस्य इसलिए नहीं बनता कि वहां रहकर उसकी अपनी स्वतंत्रता बाधित हो; या उसे अपने हितों में कटौती झेलनी पड़े. उसकी कामना होती है कि समाज के साथ मिलकर वह उन सुखसुविधाओं को भी प्राप्त कर सके, जिन्हें उसके द्वारा अकेले प्राप्त कर पाना कठिन है. प्लेटो ने भी कुछ ऐसा ही कहा था. साफ है कि पूर्णता की तलाश व्यक्ति को समाज का सदस्य बनने को प्रेरित करती है.

दूसरी ओर समाज चाहता है कि उसका प्रत्येक सदस्य उसके विकास के लिए वह सबकुछ करे, जो वह कर सकता है. उतना करे, जितना उसका सामथ्र्य है. इसके साथ ही वह स्थापित मर्यादाओं का पालन करे तथा दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरणा दे. समाज नहीं चाहता कि उसका कोई भी सदस्य स्थापित व्यवस्था को उस सीमा तक भंग करे कि वह दूसरों के लिए परेशानी का कारण बन जाए, जिससे अशांति पैदा हो और सामाजिक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा केवल शांतिव्यवस्था के नाम पर खपाना पड़े. वह चाहता है कि सदस्य इकाइयां जीवन की तयशुदा मर्यादाओं का पालन करें.सामाजिक आचारसंहिता को भंग न होने दें, जो लोकसाहित्य, सांस्कृतिकसामाजिक रीतिरिवाजों,संबंधों, कला संस्कारों आदि के रूप में प्रकट होती है. यह भिन्नभिन्न माध्यमों से एक ही बात को बारबार सामने लाती है कि लोग अपने और दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित हों. किसी के प्रति कोई दुराव, वैमनस्य आदि न पालें. यदि सब एक ही प्रकृति से जन्मे हैं, तो उनमें छोटबढ़ाई क्या!संतमहापुरुष अपने जीवनकर्म से यही संदेश देते आए हैं—‘एक नूर से सब जग उपज्या कौन भले को मंदे.गुरु नानक की यह वाणी कम शब्दों में ही जीवनसत्य से साक्षात करा देती है. संकेत यही कि जन्म से सब एक हैं. एक ही प्रकृति की संतान. इसलिए आवश्यक है कि सब एकदूसरे का सम्मान करें. परस्पर पूरक बनकर रहें. पर आदमी की तरह उसकी बनाई व्यवस्थाओं की भी उम्र निर्धारित होती है. इसलिए व्यवस्थाओं की समीक्षा, आलोचना, उनमें परिवर्धन, संशोधन आदि की संभावना भी हमेशा बनी रहती है.
समाज को अवांक्षित विक्षोभ, आपसी अविश्वास, असमानता, द्वंद्व, अशांति आदि से बचाने के लिए एक कल्याणकारी व्यवस्था की अभिकल्पना हमारे पूर्वजों, उन मनुष्यों ने जिनकी विद्वता स्थापित थी, जिनके दिलों में दूसरों के प्रति चिंताएं थीं, जो बुद्धिमान, उदार, सहिष्णु, न्यायप्रिय, संवेदनशील और सबका भला सोचने वाले थेने आपस में मिलबैठकर सबके हित के लिए की थी. ताकि संसाधनों के सदुपयोग तथा उनके द्वारा अर्जनउपार्जन और संवितरण को लेकर किसी प्रकार का झगड़ाटंटा न रहे. लोग दूसरों की जरूरतों का भी उतना ही ख्याल रखें, जितना वे अपनी जरूरतों का रखते हैं. इसके लिए जो आरंभिक व्यवस्था हुई, वह थीपरस्पर सहयोग और सहकार की. पूरा गांव एक परिवार होता था. लोग मिलकर खेती करते. जितना अनाज होता उसमें से अपनी जरूरत के लिए रखकर शेष को सामूहिक भंडार के हवाले कर देते. गांव का सम्मानित व्यक्ति उसकी देखरेख करता. आवश्यकता पड़ने पर उसमें से जरूरतमंदों को अनाज लौटा दिया जाता. उत्सवधर्मी समाज था. फुर्सत के समय लोग नाचगाना, मौजमस्ती सब करते. जो प्रकृति मुक्तमन से सबकुछ जीवन देती है, सारी सुविधाएं जुटाती है, अवसर मिलने पर उसका आभार व्यक्त करना भी न चूकते थेकामये दुःखताप्तनाम् प्राणिनाम् आर्तिनाशनं’—‘कामना है कि सभी मिलजुल कर रहें. प्राणीमात्र के दुखों का नाश हो. कहीं कोई क्लेश, व्याधि, संकट, द्वेष आदि न हो.उनका अभीष्ट थाआवश्यकतानुसार दूसरों को सहयोग देना. उपलब्ध सामग्री में सबके साथ मिलजुल कर, सुखदुख को मिलजुलकर बांटते हुए, जीवनयापन करना.
धरती सबकी है. इसलिए सब सुखी हों. सभी निर्भयनिडर होकर विचरण करें—‘सर्वे सुखिनः भवंतु,सर्वे संतु निरामयाःयह बहुत पुरानी सद्कामना है. उन दिनों की है, जब मनुष्य ने सभ्य होना सीखा ही था. यह बात लंबे अनुभव से उसकी समझ में आई थी कि विकास के लिए सहअस्तित्व की भावना को समझना, उसका सम्मान करना अत्यावश्यक है. फलस्वरूप जीवन में स्थिरता आई,विकास का माहौल बना. विकास की निरंतरता और सामाजिक समरसता के लिए नीति ग्रंथों में सभी को साथ लेकर चलना, सभी के कल्याण की कामना करना, मनुष्यमात्र का पुनीत कर्तव्य बताया गया. व्यास मुनि ने लोकसंग्रह को अनासक्त कर्म बताया. लोकसंग्रह यानी लोकहित में संपदाओं का अर्जनउपार्जन. निष्काम कर्मयोगी के समस्त फल सर्वकल्याण के निमित्त होते हैं.उनको व्यक्ति के अधिकार में न रखकर सर्वकल्याण के लिए समाज के अधिकार में रखना. कहा कि सर्वकल्याण के लिए लोकसंग्रह अपरिहार्य है. जिसे आज समाजवाद कहते हैं, वह लोकसंग्रह की इसी भावना का विस्तार है.

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