Monday, February 29, 2016

मांगपत्र

प्रतिष्ठा में ,
माननीय प्रधानमंत्री
भारत सरकार
नई दिल्ली।
विषय: मौलिक भारत ट्रस्ट के राष्ट्रीय अधिवेशन में पारित प्रस्ताव के अनुरूप मांगपत्र
माननीय महोदय,
        हमारी संस्था देशभर के राष्ट्रवादियों और भारत से प्रेम करने वाले लोगों का संगठन है जो एक दबाब समूह और सामाजिक सक्रियता और संघर्ष के माध्यम से सुशासन, चुनाव सुधर, पारदर्शिता एवं भ्रष्टाचार उन्मूलन के साथ ही व्यवस्था में भारत की मौलिक संस्कृति और सोच के अनुरूप परिवर्तन की दिशा में कार्य कर रहा है। हमारे पिछले वर्षों में किये गए कार्यों का विवरण संलग्न पुस्तिका में वर्णित है।
  आज दिनांक 27 फरवरी 2016 को हम सभी सदस्य सर्वसम्मति से राष्ट्रहित में निम्न प्रस्ताव पारित कर आपसे इसके तुरंत और प्रभावी क्रियान्वयन की मांग करते हें -
1. देश में अनेक राजनीतिक दलों ने राष्ट्रवाद की परिभाषा को उलझाने की कोशिश की है और प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से देशद्रोहियों व आतंकियों के साथ अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उनके साथ खड़े दिखायी दे रहे हें, जो चिंताजनक है और हमारे सैन्य बलों का मनोबल तोड़ने वाला भी। आपसे अनुरोध है की पुनः राष्ट्रवाद, राष्ट्रहित एवं अभिव्यक्ति की आजादी की कानूनी परिभाषा से देश की जनता एवं शिक्षा संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र/छात्राओं को स्पष्ट की जाये ताकि इस मुद्दे पर किसी भी प्रकार का भ्रम खड़ा कर आंतरिक और बाह्य तकते देश को बाँटने और अराजकता की बढ़ाने की कोशिश न कर सकें।
2. हमारी मांग है कि देश के सभी राजनीतिक एवं गैर सरकारी व सामाजिक संगठनो एवं मीडिया समूहों की गहन जाँच पड़ताल हो और देश में अराजकता और विभाजन फेलाने में उनकी भूमिका की है या नहीं इसकी जाँच हो और अगर कुछ गलत पाया जाये तो उनके खिलाफ कड़ी कानूनी कार्यवाही की जाये।
3 . सभी दलों, सामाजिक संगठनों, विदेशी अनुदान से चलने वाली संस्थाओं व मीडिया समूहों से देश के संविधान के अनुरूप कार्य करते रहने के लिए शपथ पत्र लिया जाये।
4. देश में चल रही आरक्षण नीति की पुनर्समीक्षा हेतू गैर राजनितिक समिति बनायी जाये।
5. देश में दंगो, हिंसा, आतंक और आपदा के समय प्रभावित होने वाले लोगो के हितो की रक्षा हेतू राष्ट्रीय नीति बनायी जाये और सरकारी मंत्री और अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की जाये। दोषियों को सजा और विशेष न्यायालय बनाये जाएं जो तय समय में अपना निर्णय दे।
6. देश की अर्थव्यवस्था को आयत आधारित बनते जाने से रोका जाये और देसी, कृषि आधारित एवं रोजगारोन्मुख उद्योग व व्यापार को बढ़ावा दिया जाये।
7. यू पी ए सरकार के पिछले दो कार्यकालों में अर्थव्यवस्था की स्थिति पर श्वेत पत्र जारी किया जाये। साथ ही काली अर्थव्यवस्था, सट्टे, कालाबाजारी, जमाखोरी और मिलावट पर रोक लगाने के स्थायी उपाय किये जाएं।
8. पिछले 4-5 बर्षों में खुले घोटालॉ की जाँच बहुत धीमी चल रही है, इसे समयबद्ध तरीके से निबटाकर दोषियों को शीघ्र दंड दिया जाये।
9. देश में वृहद चुनाव सुधार समय की आवश्यकता हें, विधि आयोग एवं संसदीय समिति की सिफारिशों के अनुरूप इन्हें लागू करने की कार्ययोजना सरकार देश के सामने रखे।
10. संचार, मीडिया एवं फिल्मों में अश्लीलता, नशे, पश्चात्यता और सट्टे को बढ़ावा दिया जा रहा है, इस पर तत्काल नियंत्रण जरुरी है।
धन्यवाद।
भवदीय दिनांक 27 फरवरी, 2016
समस्त सदस्य
मौलिक भारत ट्रस्ट

वीरता के इतिहास

लेकिन अपनी वीरता के इतिहास को भी ज़रा ध्यान रखना l मसलन कुछ सवाल हैं जिनके जबाब आप दे सकते हो ?
1-जब फ्रांसीसी आक्रमण किये तब तो आरक्षण नहीं था l तब आप क्यों हारे ?
2-मुगलों ने हिंदुस्तान को तहस -नहस किया तब आप कहाँ थे ?
3-सोमनाथ मंदिर को कितने बार लूटा गया ?किसने लूटा ?तब आपकी वीरता कहाँ थी ?
4-अंग्रेजों ने हिंदुस्तान पर एकक्षत्र राज्य किया l बदले में रायबहादुर ,सर जैसी गुलामी की उपाधिया बांटी l लेने वाला कौन था ?
आप कहते हैं कि आपको आरक्षण से खतरा है l हम कहते हैं ,हमें आपसे खतरा है l

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माननीय 
तरूणसागर जी महाराज ! 
आरक्षण से हंस पिछड रहे है और कौए उड रहे हैं 
आप जैन मुनि है ग्यानी हैं सो आपने अपने ग्यान के आधार पर ही ये बात कही होगी ! 
मसलन :- हंस = सवर्ण
कौए = obc sc st
महामहिम से मेरा निवेदन
१:- ये हंस सिकंदर के समय कहां थे?
२:- ये हंस मुगलों के समय कहां थे ?
३:- ये हंस डच फ्रांसीसी पुर्तगाली और अंग्रेजों के समय कहां थे ?
आपने कहा आरक्षण आर्थिक आधार पर हो ................
महोदय
१:- क्या पंच सरपंच जनपद सदस्य जिला पंचायत सदस्य अध्यक्ष विधायक व सांसद का चुनाव आर्थिक आधार पर होता है ?
२:- क्या कभी आप जैसे प्रकांड विद्वान ने कभी भूलकर भी इस पर कडवे या खट्टे प्रवचन दिए हैं ?
३:- क्या हवाई जहाज भारतीय रेल के रिजर्वेशन व उनकी सुविधायें आर्थिक आधार पर होती हैं ?
४:- क्या अर्थ से संपन्न लोगों ने नौकरी लेना बंद करदी हैं ? क्या वे यह लिखकर देने को तैयार है कि वे नौकरी न लेकर गरीब लोगों को छोडने को तैयार है ?
५:- क्या मंदिर में पुजारी का जन्मजात आरक्षण आर्थिक आधार पर है ? यदि हां तो कैसे?
यदि नहीं तो क्यों नहीं आपके ग्यान चक्षु इस पर प्रकाशित कीजिए ?
६:- नौकरी के अलावा अर्थ का मतलब दूसरी जगह नगण्य है जैसे
मंदिर के पुजारी
कंपनियों के मालिक
जमीन के जमीदार
और
औहदेदार और रसूकदार
......
अत्यंत प्रखर वक्ता मुनि श्रेष्ठ तरुण सागर जी महाराज
अब कौओं की सुन लीजिए
१:- जब सडक पर मुरम गिट्टी बिछाई जाती है तो ये कौए काम आते हैं हंस नहीं २:- जब आप जैसों की शोभा यात्रा निकाली जाती है तो ये कौए बैंड बजाते हैं हंस नही
३:- सडक की सफाई कौए करते हैं हंस नहीं
४:- मंदिर का निर्माण करने में
कौओं का पसीना बहता है हंसो का नही
५:- रेल की पटरी बिछाना पुल बनाना भवन बनाना हो तो कौए आगे आते है हंस नहीं
६:- फसल बौने से काटने तक का काम कौए करते है हंस नहीं ?
७:- सारे गंदे काम कौए करते हैं इसलिए हंसों के गाल लाल होते हैं ?
कौए सारा जीवन हंसों की सेवा करते है और हंस कौओ के साथ क्या करते हैं ? लिखूं ......?
नहीं आप समझदार है
अब जरा सोचिये
१:- कभी कौओं ने किसी भगवान का मंदिर तोडा है ?
२:- कभी कौओ ने किसी हंस महापुरुषों का स्टेच्यु तोडा है? या उसपर कालिख या तेजाब डाला है ?
परंतु
वे कौन लोग हैं जो
१:- भगवान बुद्ध की मूर्ति तोडते हैं ? बाबासाहेब डां. अंबेडकर का स्टेच्यु तोडते व कालिख पौतकर अपने उच्य चरित्र का परिचय देते हैं वे कौए हैं या हंस ?
हंस कभी जातिवाद पर क्यों नहीं बोलते ?
महामुनि जी हम तो ये कौए और हंस की बात भूलना चाहते है ? हम चाहते है हंस और कौए एक ही उपवन में रहे क्योकि भारत का संविधान कहता है यह देश हर भारतवासी का है न कि किसी कौए या हंस का ? हम को ये भेदभाव की खाई भूलने दीजिए ? मुनि जी मुनि जी ही बने रहिए नेता तो बैसे ही गाजर घास की तरह हर जगह पैदा हो जाते है ? आपसे आज इतना अमूल्य ग्यान प्राप्त हुआ हम आपके आभारी है
पर ध्यान रखियेगा ये कौए अंबेडकरवादी है वगैर तर्क लगाये काम ही नहीं करते हैं ! मनुवादी नहीं है जो झांसे में आ जायें
मुनि जी
यदि उपरोक्त बातों से कुछ सीख मिले तो जरूर मंच से बोलिएगा !
वरना हम तो जानते ही हैं कि आप कितने विद्वान है ?

श्री धर्मदास जी शास्‍त्री सांसद

अखिल भारतीय रैगर महासभा द्वारा सन् 1984 में जयपुर में आयोजित चतुर्थ रैगर महासम्मेलन में लाखों की भीड जुटा कर श्रीमति इन्दिरा गाॅंधी के समक्ष रैगर समाज की शक्ति का शानदार प्रदर्शन किया। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इन्दिरा गाॅंधी इस सम्मेलन को सम्बोधित करने आई थी। यह एक ऐतिहासिक सम्मेलन था। 
27 सितम्‍बर, 1986 को पंचम अखिल भारतीय रैगर महासम्‍मेलन विज्ञान भवन दिल्‍ली में आयोजित किया गया । इस सम्‍मेलन के मुख्‍य अतिथि भारत के तात्‍कालीन महामहिम राष्‍ट्रपति श्री ज्ञानी जैलसिंह जी थे तथा अध्‍यक्षता श्री धर्मदास जी शास्‍त्री सांसद ने की । इस सम्‍मेलन में हजारों की संख्‍या में रैगरों ने भाग लिया । देश के हर कौने से आए रैगरों ने इस सम्‍मेलन में शिरकत की । देश की राजधानी दिल्‍ली के महंगे और भव्‍य विज्ञान भवन में रैगर समाज का महासम्‍मेलन आयोजित होना ही अपने आप में गौरव की बात थी...

पीएम मोदी को एक पत्रकार का खुला पत्र, मुरथल मुद्दे पर चुप्पी क्यों?

माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी,
पेशे से पत्रकार हूं। पत्रकार यानि आजकल का सबसे बदनाम पेशा, अब तक लोग घर बैठकर मन ही मन कोसते थे लेकिन हाल के दिनों में परिस्थितियां बदली है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बढ़ी और राष्ट्रभक्ति जगी तो लोग सड़कों पर भी निकलने लगे हैं। हम पत्रकारों के नाम मात्र के अस्तित्व को जाने बगैर अलग अलग संगठन के लोग जोर आजमाइश भी करने लगे हैं, माइक-कैमरा के साथ बदसलूकी तो दूर अब सीधे पत्रकारों को ही निशाना बनाया जा रहा है। खैर इन सब बातों में उलझने के बजाए हम सीधे मुद्दे पर आते हैं। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में गुप्त मतदान की व्यवस्था है, लेकिन आज में सार्वजनिक रूप से कह रहा हूं कि मैने लोकसभा चुनाव में बदलाव के वोट किया था, आपकी अगुवाई वाली बीजेपी को वोट किया था। बहुत हुआ महिलाओं पर अत्याचार, अबकी बार मोदी सरकार, यही नारा दिया था न आपने।
पीएम मोदी को एक पत्रकार का खुला पत्र, मुरथल मुद्दे पर चुप्पी क्यों?
हरियाणा में जाट उपद्रवियों की हिंसा पर खट्टर सरकार के साथ साथ पीएम मोदी की खामोशी काफी चुभने वाली है। अब एक पत्रकार ने इसी से जुड़े अपने मर्म को देश के सामने लाने की कोशिश की है...
मोदी जी, सच कहूं तो हिल गया हूं, जब से मुरथल की खबरें सुन रहा हूं। माना जाता है कि जब रोम जल रहा था तो वहां का सम्राट नीरो बंसी बजा रहा था, वही कुछ हरियाणा के मुरथल में हुआ। हरियाणा जाने से डरने लगा हूं, इसलिए नहीं कि आरक्षण की मांग कर रहे उन वहशी दंगाइयों ने हमारी मां-बहनों के साथ क्या किया, बल्कि इसलिए कि खाकी वर्दी पहन पुलिस ने जो कायरता दिखाई। इसलिए भी, कि कैसे खट्टर सरकार ने  30 फीसदी जाट वोटों के लिए न सिर्फ आंखें मूंद ली बल्कि मामला सामने आने के बाद भी बुझे मन से जांच कमिटी की बात कह कर पल्ला झाड़ लिया।
प्रधानमंत्री जी, शायद आप जानते ही होंगे और अगर नहीं जानते हों तो मैं बता दूं कि अरब देशों में 'तहर्रुस' नामक एक खेल खेला जाता है जिसमें सार्वजनिक रूप से महिलाओं का यौन उत्पीड़न किया जाता है। इसमें बलात्कार, पिटाई से लेकर लूट तक को अंजाम दिया जाता है, खास बात यह है कि इस उत्पीड़न को भीड़ के साथ बड़े इवेंट्स, रैली, प्रदर्शन, कॉन्सर्ट या पब्लिक इवेंट्स के दौरान ही किया जाता है। कई बार, पीड़ित अचानक हुए इस हमले से 'स्टेट ऑफ शॉक' की हालत में पहुंच जाती है और ऐसे में भीड़ फायदा उठाकर उसे लूट भी लेती है। बड़ी संख्या में भीड़ की मौजूदगी से हमलावर सजा से भी बच जाते है।
मोदी जी, यह सब बताने का तात्पर्य यह है कि जो कुछ हरियाणा में जाट आंदोलन के दौरान हुआ वो कहीं से भी इससे कम नहीं था। मोदी जी आपकी खामोशी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की खामोशी से अलग है, उनकी खामोशी न जाने कितनों सवालों की आबरू बचा लेती थी, लेकिन आपकी इस खामोशी की उपज अवारा भीड़ ने देश की महिलाओं की आबरू लूटने में भी गुरेज नहीं की। महंगाई, भ्रष्टाचार, पेट्रोल की कीमत, अखलाक की मौत, रोहित वेमुला की मौत और अब चल रहे जेएनयू कांड के बाद पूरा देश दो विचारधाराओं में बंट चुका है। राष्ट्रद्रोही बनाम राष्ट्रभक्त की लड़ाई जारी है लेकिन इन सब मुद्दों में आखिर दो पक्ष तो हैं, लेकिन मुरथल घटना पर तो कोई पक्ष ही नहीं है। आखिर हो भी क्यों, वोटबैंक से समझौता कौन करे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पंजाब में वोटबैंक तलाश रहे हैं तो राहुल हर बार की तरह इस बार भी गायब हैं।
बॉलीवुड की एक फिल्म एनएच 10 देखकर एक वक्त सहम गया था लेकिन जाटों का यह प्रदर्शन देखकर यकीन हो गया। आरक्षण की मांग का तरीका अगर इतना भयावह है तो फिर समझ सकते हैं कि आरक्षण का फायदा उठाने के बाद इनका रवैया क्या होगा। एक वक्त था जब पूरा देश आपकी राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया का कायल हुआ करता था लेकिन पिछले दिनों में कुछ ऐसे मुद्दों पर जो सीधे जनता से जुड़े थे, आपकी संवादहीनता ने न सिर्फ लोगों को निराश किया है बल्कि आपको भी संवेदनहीनता की श्रेणी में ला खड़ा किया है। पूरे प्रदर्शन से न सिर्फ करोंड़ों-अरबों का नुकसान हुआ है बल्कि सैकड़ों परिवारों को इसका दंश झेलना पड़ा है और आप फिर भी चुप हैं।
आप सिर्फ बीजेपी के नेता नहीं हैं। देश के प्रधानमंत्री हैं। आप अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को लगातार बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इस तरह की गुंडई देश की छवि को कहां ले जाएगी ये आपसे बेहतर कौन समझ सकता है। आपको शपथ लिए 2 साल होने वाले हैं लेकिन सोशल मीडिया में आपके प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ है। आपका एक ट्वीट लाखों लोगों में एक संदेश पहुंचा सकता है। मोदी जी, निर्दोष महलाओं के कपड़े फाड़कर खेतों में घसीटकर गैंगरेप जैसे कुकृत्य को अंजाम देकर उन दंगाई जाटों ने जिस बहादुरी का परिचय दिया है वह इस पूरी बिरादरी के साथ-साथ पुलिस महकमे के लिए भी एक कलंक से कम नहीं है।
रूह कंपा देने वाली इस घटना में कहर झेलने वाली महिलाओं को जिस तरह पुलिस ने मेडिकल टेस्ट, कानून और अदालत का वास्ता देकर फजीहत से बचने के लिए कहा, इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है, फिर भी आपने एक शब्द बोलना उचित नहीं समझा। क्या ये राष्ट्रद्रोह नहीं है, क्या उन दंगाइयों के ऊपर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा नहीं होना चाहिए, मोदी जी आप पूरे मामले की उच्चस्तरीय जांच की बात कर सकते थे ताकि इन दंगाइयों को एक सख्त संदेश दिया जा सके। मोदी जी, आप अपने चुनाव प्रचार में महिला सुरक्षा की बात करते थे लेकिन क्या अब इसकी कोई कीमत नहीं? इस भयावह मुद्दे पर भी आपकी तरफ से कोई शब्द नहीं निकले, ना ही कोई ट्वीट, क्या यही आप भी उन्ही नेताओं की ब्रिगेड में शामिल हो चुके हैं? जब न्यायपालिका इंसाफ की कसौटी पर सच और झूठ को तोल कर सच्चाई का निर्धारण करती है, तो मुझ जैसे अनेक आम भारतीयों को उम्मीद की एक किरण दिखाई पड़ती है।
जिस तरह कोर्ट ने पुलिस को फटकार लगाई है उसे देखकर अंग्रेजी राज याद करने को मजबूर हो जाता हूं। उस वक्त भी खाकी वर्दी वाली पुलिस अपने ही देशवासियों को रौंदने का काम करती थी और आज भी यह वर्दी खामोश होकर जाटों का उत्पात देखती रही। अब जब पुलिसवालों के घर से लूटे हुए सामान मिलने की खबर आ रही है तो बाकी कुछ कहने की जरूरत ही नहीं बची। जेएनयू मुद्दे पर देशभक्ति का राग अलाप रहे राष्ट्रभक्तों से मुझे यह उम्मीद पहले भी नहीं थी लेकिन आप इतने खामोश हो जाएंगे, यह भी नहीं सोचा था। सरकार के साथ साथ बड़े बड़े पत्रकार और मीडिया हाउस ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली है, तभी मुझ जैसा छोटा पत्रकार यह लिखने को मजबूर हुआ है।
आखिर चुप्पी हो भी क्यों न, एक तो मामला सांप्रदायिक नहीं है और ऊपर से यूपी विधानसभा चुनाव, किसे नहीं चाहिए जाटों का वोट। मेरा निजी तौर पर मानना है कि माननीय न्यायालय द्वारा इस विषय पर स्वत: संज्ञान लेकर कार्यवाही करने के बजाए अगर हरियाणा सरकार इस पर कार्रवाई करती इस देश के लिए शायद ज्यादा अच्छा होता क्योंकि तब जनता में इक साकारात्मक संदेश तो जाता ही साथ ही राजनीतिक रोटियाँ भी नहीं सिक पातीं। इससे प्रदर्शनकारियों को भी सख्त संदेश मिलता। और न ही खबरों का धंधा हो पाता। माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय मुझे उम्मीद है कि इस आम भारतीय की आवाज इस देश में न्याय की सबसे बड़ी अदालत के सबसे बड़े न्यायाधीश तक अवश्य पहुंचेगी।
मोदी जी, क्या हमारा लोकतंत्र वाकई इतना कमजोर है, क्या हम वाकई उन चंद ताकतवर दंगाईयों के रहमो करम पर जिंदा है, क्या आपसे जो उम्मीदें थी, उसे दफना दूं, मान लूं कि आप भी उन्ही राजनेताओं में से हैं जो बस वोटबैंक की राजनीति करते हैं। मोदी जी, जनता सब देख रही है। यहां सत्ता का फैसला सबसे निचले स्तर के लोग ही करते हैं, यहां प्याज की कीमत पर सरकार बनती-बिगड़ती है और यहां की जनता जितनी जल्दी नोताओं को अपना हीरो बनाती है उसी रफ्तार से बाहर भी करती है।

Sunday, February 28, 2016

दुनिया की क्रांतियों का इतिहास कहता है कि परिवर्तन के लिए दो चीजों की आवश्यकता है ।

दुनिया की क्रांतियों का इतिहास कहता है कि परिवर्तन के लिए दो चीजों की आवश्यकता है । एक अकाट्य तर्क और दूसरा उस तर्क के पीछे खड़ी भीड़ । अकेले अकाट्य तर्क किसी काम का नही और अकेले भीड़ भी कुम्भ के मेले की शोभा हो सकती है परिवर्तन की सहयोगी नही । 
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इस युग के कुछ अकाट्य तर्क इस प्रकार है - 
* मशीनों ने मानवीय श्रम का स्थान ले लिया है ।
* कम्प्यूटर ने मनवीय मस्तिष्क का काम सम्भाल लिया है । 
* जीवन यापन के लिए रोजगार अनिवार्य होने की जिद अमानवीय है । 
* 100% रोजगार सम्भव नही है । 
* अकेले भारत की 46 करोड़ जनसंख्या रोजगार के लिए तरस रही है । 
* संगठित क्षेत्र में भारत में रोजगार की संख्या मात्र 2 करोड़ है । 
* दुनिया के 85% से अधिक संसाधनों पर मात्र 15 % से कम जनसंख्या का अधिपत्य है । 
* 85 % आबादी मात्र 15 % संसाधनों के सहारे गुजर बसर कर रही है । 
धरती के प्रत्येक संसाधन पर पैसे की छाप लग चुकी है, प्राचीन काल में आदमी जंगल में किसी तरह जी सकता था पर अब फॉरेस्ट ऑफिसर बैठे हैं । 
* रोजगार की मांग करना राष्ट्र द्रोह है, जो मांगते हैं अथवा देने का वादा करते हैं उन्हें अफवाह फैलाने के आरोप में सजा दी जानी चाहिए ।
* रोजगार देने का अर्थ है मशीनें और कम्प्यूटर हटा कर मानवीय क्षमता से काम लेना, गुणवता और मात्रा के मोर्चे पर हम घरेलू बाजार में ही पिछड़ जाएंगे ।
* पैसा आज गुलामी का हथियार बन गया है । वेतन भोगी को उतना ही मिलता है जिससे वह अगले दिन फिर से काम पर लोट आए । 
* पुराने समय में गुलामों को बेड़ियाँ बान्ध कर अथवा बाड़ों में कैद रखा जाता था । 
अब गुलामों को आजाद कर दिया गया है संसाधनों को पैसे की दीवार के पीछे छिपा दिया गया है । 
* सरकारों और उद्योगपतियों की चिंता केवल अपने गुलामों के वेतन भत्तों तक सीमित है । 
* जो वेतन भत्तों के दायरों में नही है उनको सरकारें नारे सुनाती है, उद्योग पति जिम्मेदारी से पल्ला झाड़े बैठा है ।
* जो श्रम करके उत्पादन कर रही हैं उनकी खुराक तेल और बिजली है । 
* रोटी और कपड़ा जिनकी आवश्यकता है वे उत्पादन में भागीदारी नही कर सकते, जब पैदा ही नही किया तो भोगने का अधिकार कैसे ? 
ऐसा कोई जाँच आयोग बैठाने का साहस कर नही सकता कि मशीनों के मालिकों की और मशीनों और कम्प्यूटर के संचालकों की गिनती हो जाये और शेषा जनसंख्या को ठंडा कर दिया जाये । 
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दैनिक भास्कर अखबार के तीन राज्यों का सर्वे कहता है कि रोजगार अगले चुनाव का प्रमुख मुद्दा है , इस दायरे में 40 वर्ष तक की आयु लोग मांग कर रहे हैं।
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देश की संसद में 137 से अधिक सांसदों के द्वारा प्रति हस्ताक्षरित एक याचिका विचाराधीन है जिसके अंतर्गत मांग की गई है कि 
* भारत सरकार अब अपने मंत्रालयों के जरिये प्रति व्यक्ति प्रति माह जितनी राशि खर्च करने का दावा करती है वह राशि खर्च करने के बजाय मतदाताओं के खाते में सीधे ए टी एम कार्डों के जरिये जमा करा दे। 
* यह राशि यू एन डी पी के अनुसार 10000 रूपये प्रति वोटर प्रति माह बनती है । 
* अगर इस आँकड़े को एक तिहाई भी कर दिया जाये तो 3500 रूपया प्रतिमाह प्रति वोटर बनता है । 
* इस का आधा भी सरकार टैक्स काट कर वोटरों में बाँटती है तो यह राशि 1750 रूपये प्रति माह प्रति वोटर बनती है । 
* इलेक्ट्रोनिक युग में यह कार्य अत्यंत आसान है ।
* श्री राजीव गान्धी ने अपने कार्यकाल में एक बार कहा था कि केन्द्र सरकार जब आपके लिए एक रूपया भेजती है तो आपकी जेब तक मात्र 15 पैसा पहूँचता है । 
* अभी हाल ही में राहुल गान्धी ने इस तथ्य पर पुष्टीकरण करते हुए कहा कि तब और अब के हालात में बहुत अंतर आया है आप तक यह राशि मात्र 3 से 5 पैसे आ रही है ।
राजनैतिक आजादी के कारण आज प्रत्येक नागरिक राष्ट्रपति बनने की समान हैसियत रखता है । 
जो व्यक्ति अपना वोट तो खुद को देता ही हो लाखों अन्य लोगों का वोट भी हासिल कर लेता है वह चुन लिया जाता है । 
* राजनैतिक समानता का केवल ऐसे वर्ग को लाभ हुआ है जिनकी राजनीति में रूचि हो ।
* जिन लोगों की राजनीति में कोई रूचि नही उन लोगों के लिए राज तंत्र और लोक तंत्र में कोई खास अंतर नही है । 
* काम के बदले अनाज देने की प्रथा उस जमाने में भी थी आज भी है । 
* अनाज देने का आश्वासन दे कर बेगार कराना उस समय भी प्रचलित था आज भी कूपन डकार जाना आम बात है । 
* उस समय भी गरीब और कमजोर की राज में कोई सुनवाई नही होती थी आज भी नही होती । 
* जो बदलाव की हवा दिखाई दे रही है थोड़ी बहुत उसका श्रेय राजनीति को नही समाज की अन्य व्यवस्थाओं को दिया जाना युक्ति संगत है । 
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राष्ट्रीय आय में वोटरों की नकद भागीदारी अगले चुनाव का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए । 
* अब तक इस विचार का विस्तार लगभग 10 लाख लोगों तक हो चुका है । 
* ये अकाट्य मांग अब अपने पीछे समर्थकों की भीड़ आन्धी की तरह इक्क्ट्ठा कर रही है । 
* संसद में अब राजनीतिज्ञों का नया ध्रूविकरण हो चुका है । 
* अधिकांश साधारण सांसद अब इस विचार के साथ हैं । चाहे वे किसी भी पार्टी के क्यों न हो । 
* समस्त पार्टियों के पदाधिकारिगण इस मुद्दे पर मौन हैं । 
* मीडिया इस मुद्दे पर कितनी भी आँख मूँद ले, इस बार न सही अगले चुनाव का एक मात्र आधार 'राष्ट्रीय आय मं. वोटरों की नकद भागीदारी' होगा, और कुछ नही । 
* जो मिडिया खड्डे में पड़े प्रिंस को रातों रात अमिताभ के बराबर पब्लिसिटी दे सकता है उस मीडिया का इस मुद्दे पर आँख बन्द रखना अक्षम्य है भविष्य इसे कभी माफ नही करेगा| 
knol में जिन संवेदनशील लोगों की इस विषय में रूचि हो वे इस विषय पर विस्तृत जान कारी के लिए fefm.org के डाउनलोड लिंक से और इसी के होम पेज से सम्पर्क कर सकते हैं । 
मैं नही जानता कि इस कम्युनिटी के मालिक और मोडरेटर इस विचार से कितना सहमत या असहमत हैं परंतु वे लोग इस पोस्टिंग को यहाँ बना रहने देते हों तो मेरे लिए व लाखों उन लोगों के लिए उपकार करेंगे जो इस आन्दोलन में दिन रात लगे हैं । 
सांसदों का पार्टीवार एवं क्षेत्र वार विवरण जिनने इस याचिका को हस्ताक्षरित किया, वेबसाइट पर उपलब्ध है ।

युवापीढ़ी

हमेशा जोश और जुनून से सराबोर रहने वाली युवा पीढ़ी देश का भविष्य होती हैं। आंखों में उम्मीद के सपने, नयी उड़ान भरता हुआ मन, कुछ कर दिखाने का दमखम और दुनिया को अपनी मुठ्ठी  में करने का साहस, हरदम कुछ नया कर गुजरने की चाहत, नित नई-नई चुनौतियों का सामना करने तैयार रहना और जो एक बार करने की ठान लें तो लाख मुश्किलें भी उसको बदल न पाएं। शायद आज की युवा पीढ़ी को अपनी इस शक्ति का अंदाजा नहीं है। देश की युवा शक्ति ही समाज और देश को नई दिशा देने का सबसे बड़ा औजार है। वह अगर चाहे तो इस देश की सारी रूप-रेखा बदल सकती है। अपने हौसले और जज्बे से समाज में फैली विसंगतियों, असमानता, अशिक्षा, अपराध आदि बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंक सकती है। युवा शब्द ही मन में उडान और उमंग पैदा करता है। उम्र का यही वह दौर है जब न केवल उस युवा के बल्कि उसके राष्ट्र का भविष्य तय किया जा सकता है। आज के भारत को युवा भारत कहा जाता है क्योंकि हमारे देश में असम्भव को संभव में बदलने वाले युवाओं की संख्या  सर्वाधिक है। आंकड़ों के अनुसार भारत की 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 वर्ष आयु तक के युवकों की और 25 साल उम्र के नौजवानों की संख्या 50 प्रतिशत से भी अधिक है। ऐसे में यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि युवा शक्ति वरदान है या चुनौती? महत्वपूर्ण इसलिए भी यदि युवा शक्ति का सही दिशा में उपयोग न किया जाए तो इनका जरा सा भी भटकाव राष्ट्र के भविष्य को अनिश्चित कर सकता है।
लेकिन आज युवा पीढ़ी शायद इन बातों से अनजान है। एक ओर वह अपने कैरियर को बेहतर दिशा देने के लिए संघर्षरत है, कड़ी मेहनत करती है और जोश, जुनून, दृढ़ संकल्प, इच्छाशक्ति से अपने लक्ष्य को पाने का हौसला रखती है वहीँ कुछ युवा नशा, वासना, लालच, हिंसा के कर्म में शामिल हो गए हैं। पैसे वालों के लिए एडवेंचर और मनोरंजन जीवन का मुख्य ध्येय बन रहे हैं और उनकी देखादेखी विपन्न युवा भी यही आकांक्षा पाल बैठा है। स्वामी विवेकानंद युवाओं से बहुत प्यार करते थे। वे कहा करते थे विश्व मंच पर भारत की पुनर्प्रतिष्ठा में युवाओं की बहुत बड़ी भूमिका है। विवेकानंद का मत था- मंदिर जाने से ज्यादा जरूरी है युवा फुटबॉल खेले। युवाओं के स्नायु फौलादी होना चाहिए क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है। दुर्भाग्य से आज अधिसंख्य लोगों के जीवन से खेल-कूद, व्यायाम दूर होते जा रहे हैं। आज तो पूरे-पूरे दिन ही मोबाइल, इंटरनेट, फेसबुक, व्हाट्स एप, ट्विटर आदि युवाओं को व्यस्त रखते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हमारा युवा इस देश की परिस्थियों ठीक से समझे। विगत 67 वर्षों में जहाँ भारतीय लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुईं, वहीं राजनीति में कई तरह की विकृतियाँ भी घर करती गईं। युवा वर्ग प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से इस विकृति से अत्यधिक प्रभावित हुआ है। यूं तो अंग्रेजों से आजादी मिले 67 वर्ष बीत गए लेकिन हमारा आर्थिक-सामाजिक आजादी का सपना अभी भी अधूरा है। आजादी मिलने के बाद के गत साढ़े छह दशकों से अधिक का ये सफरनामा कई कड़वे-मीठे अनुभवों और अच्छी-बुरी घटनाओं का संयोग रहा है। लगभग 25 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है। जाहिर है आज समाज और सरकार को समरसता और नागरिकों के गरिमापूर्ण जीवन-यापन के नैसर्गिक अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए लगातार प्रयास करने की जरूरत है। लेकिन हम देख रहे हैं कि अधिसंख्य नागरिकों का जीवनस्तर अभी भी बहुत दयनीय अवस्था में है। कानून व्यवस्था एक बहुत बड़ी चुनौती है हमारे सामने। अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। विवेकहीनता पैदा हो रही है। मनुष्य आज समाज के बारे में नहीं सोच रहा है वह सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत स्वार्थ और सुख-सुविधाओं के लिए कर्म करता है। राजनीतिक  इच्छाशक्ति की कमी के कारण देश में भ्रष्टाचार जैसी बुराइयां बढ़ रही हैं। युवा वर्ग इस सबसे अनजान नहीं है लेकिन वह इस स्थिति को बदलने का प्रयत्न करता नहीं दिखाई देता। भारत एक बहुत ही असाधारण लोकतंत्र है, जिसकी कुछ बहुत ही मजबूत लोकतांत्रिक विशेषताएँ हैं वहीँ कुछ बहुत ही अलोकतांत्रिक विशेषताएँ भी हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ-साथ तमाम तरह की मुश्किलें ही आजाद भारत को एक असाधारण लोकतंत्र बनाती हैं। समस्याएं अनेकों हैं लेकिन उनका उचित और उपयुक्त समाधान करने की कोई कारगर पहल नहीं हो रही है। आजादी के 20-25 साल बाद मजदूरों और किसानों के संघर्ष, आर्थिक मुद्दों पर आंदोलन हुए थे। इसके बाद सांस्कृतिक मुद्दों पर असंतोष ज्यादा देखा गया है। विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक विकास के लिहाज से फर्क तो रहा है लेकिन अधिकांश जनांदोलन सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर होते रहे हैं। दीन-हीन का थैला छोड़ कुछ लोगों ने विकास के पंख लगाकर अंतरिक्ष तक की यात्रा की है। संचार क्रांति के विशेषज्ञ बनकर दुनिया में झंडे गाड़े हैं। सुविधाओं के लैपटॉप थाम लिए, पहाड़ों से ऊँची इमारतें खड़ी कर ली हैं...वे लोग हैं जो इस देश को इंडिया कहते हैं। वे अंग्रेजी बोलते हैं हर पाश्चात्य वृत्तिा की नकल करते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में आई तेजी और शेयर बाजार से मिलते फायदों की वजह से भारत में करोड़पतियों की संख्या एक लाख का ऑंकड़ा पार कर गई है। लेकिन तेज रफ्तार आर्थिक विकास के बावजूद भारत की 22 फीसदी से ज्यादा आबादी अब भी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है। साथ ही कृषि क्षेत्र में खास प्रगति होती नहीं दिखाई दे रही है। कृषि विकास दर महज 2.7 फीसदी पर अटकी हुई है जबकि खेती पर भारत की 65 फीसदी से ज्यादा आबादी निर्भर है। एक बहुल वर्ग अभी भी साफ पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी, कपड़ा, एक अदद पक्की छत और मूलभूत अधिकारों के लिए रात-दिन सपने बुन रहा है। वह बदबूदार नालों के किनारे स्लम से मुक्ति के लिए टकटकी लगाए बैठा है। कंप्यूटर का नाम उसने नहीं सुना, उसे इंतजार है अपने गाँव तक बिजली के खंभों के आने का ताकि रात ढले घर में रोशनी हो। दिन में चिडिय़ों की कतारें उन तारों पर झूलें। किताबों और पाठशाला तक हर बच्चे की पहुंच हो, दवा के बिना कोई न मरे और भूख से कोई मरने को मजबूर न हो... इस सपेरों और भिखमंगों के देश को भारत कहते हैं। युवाओं को इन स्थितियों को होगा।  समाज और देश निर्माण में अपना योगदान करना होगा। देश सीमा रेखा भर तो नहीं होता। वह समाज और मनुष्यों से निर्मित होता है। आज के युवा को अपनी उन्नति और प्रगति के साथ इस भारत का नक्शा बदलने का संकल्प लेना होगा तभी यह भारत दुनिया का सिरमौर बन सकेगा। तभी हम सच्चे अर्थों में आजादी का आनंद ले पाएंगे।

आज हमारे बहुत से युवा अनेक कीर्तिमान स्थापित कररहे है और बहुत से इस दिशा में अग्रसर है। वास्तव में युवा शक्ति बड़ी प्रबल शक्ति है। युवा शक्ति के बल पर ही देशदुनिया और समाज आगे बढ़ सकता हैलेकिन इसके लिए उस शक्ति को नियंत्रित करना भी बहुत जरूरी है। अबतक हुए राजनीतिकसांस्कृतिक और सामाजिक क्रांति की बात करें तो सभी क्रांतियों के पुरोधा युवा रहे हैं। युवा शक्ति सदैव देश को आगे बढ़ाने में सहायक बनती है। समाज के युवा दुर्व्यसन मुक्त होंगेबुराईमुक्त होंगे तो हम बड़ी से बड़ी उपलब्धियां भी अर्जित कर सकेंगे।
गत सप्ताह दिल्ली के एक निगम पार्षद के युवा हो रहे पुत्र की  मृत्यु ने झकझोड़ दिया। जानकारी केअनुसार उस बालक की मित्र मंडली उन तमाम व्यसनों से घिरी थी जिसे अब बुरा नहींआधुनिकता का पर्याय मानाजाता है। वह किशोर अभी स्कूली छात्र ही था कि नशे का आदी हो गया। पिता समाज की सेवा में व्यस्त रहे इसलिएपुत्र को पर्याप्त समय नहीं दे सके। परिणाम ऐसा भयंकर आया कि वे अपने इकलौते पुत्र से वंचित हो गए। 

आज का युवा वर्ग

युवा कौन है...युवा किसे कहें...युवा कहलाने की कसौटी और पहचान क्या है ? सिर्फ उम्र, नवीनतम फैशन, होश रहित जोश, अपनी ध्वंशात्मक शक्ति का तूफानी उबाल या वर्तमान की विद्रूपताओं को चुनौती देकर नया भविष्य गढ़ने का संकल्प...? आदर्शों के लिए मृत्यु तक का वरण करने की तैयारी, हमारे नवयुवक 21 वीं सदी के भारत को स्वर्ग बनाना चाहते हैं.. या यह कहना कि हमारी युवा पीढ़ी नालायक है, कुछ नहीं कर सकती, दोनों में सच क्या है ? युवा पीढ़ी कोई स्वप्न नहीं, वास्तविकता है। उसके सामने खड़ी समस्या भी कोई स्वप्न नहीं बल्कि एक कचोटती हुई चुनौती है।
आप रोज नवजवानों को कालेज जाते, काम ढूंढते, काम पर जाते, भीख मांगते, चोरी करते, मारामारी और दादागिरी करते देखते हैं...क्या आप सचमुच उसे ऐसा करते देखते हैं ? आपने उन्हें मुट्ठी भर अनाज के लिए दिन भर खेतों में मजदूरी करते देखा है ? हां कहना आसान है, मगर सच्चाई कुछ और है..?
जनगणना के समय 18 वर्ष का हो जाने पर मतदान का हक प्राप्त करने पर उन्हें युवा कहेंगे या जीन्स और टी शर्ट पहनकर विचरण करने वाले, कैम्पस में नशीली दवाओं का प्रदूषण फैलाने वाले युवा कहलाने के हकदार हैं ? हजारों की संख्या में रचनात्मक कार्य का किसी प्रेरणादायी व्याख्यान को सुनने के लिए उमड़ते हुए लोगों की हम बात कर रहे हैं...अथवा उन युवकों की बात कर रहे हैं जो आंखों में स्वप्न और ओठों पर संकल्प करते हैं..? एक अमेरिकी हिप्पी चरस का कश लेते हुए बताता है-''...जब मैं छोटा था तब झार में मेरे पापा मुझसे कहते थे कि अगर किसी का फोन आये तो कह देना कि मैं घर में नहीं हूं.. दिन भर झूठ बुलवाते थे और रात में कहते थे कि अच्छे बच्चे हमेशा सच बोला करते हैं, तुम भी कभी झूठ मत बोलना'' अब बताइये मैं क्या करता ? इस अमेरीकी युवक की बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। आखिर हम अपनी युवा पीढ़ी के समक्ष क्या आदर्श प्रस्तुत करते हैं ? उन्हें हम जो कहते हैं और जो करते हैं, उसमें कहीं फर्क तो नहीं है..?
एक बार रूस के प्रसिद्ध दार्शनिक गुर्जिफ अपने कुछ शिष्यों के साथ टिकलिस नामक शहर में गये। उनके शिष्यों को वहां यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि पूरा शहर नींद में डुबा हुआ है। व्यापारी नींद में व्यापार कर रहे हैं, ग्राहक नींद में खरीददारी कर रहे हैं। एक शिष्य ने अपने गुरू से पूछा-'कमाल है, ये सब नींद में है। मगर एक बात मुझे समझ में नहीं आती कि जब मैं तीन माह पूर्व यहां आया था तब ऐसा कुछ नहीं था।' गुर्जिफ ने कहा-'उस वक्त तुम नींद में थे, आज तुम जागे हुए हो। जब तुम सो रहे थे तब ये सभी सो रहे थे जो तुम्हें जागते प्रतीत हुए। इसी प्रकार आज तुम जागे हुए हो तो तुम्हें ये सब सोते प्रतीत हो रहे हैं।' हमारा हाल ही कुछ ऐसा है कि हम नौजवानों को देखते हैं मगर उनकी संवेदनाओं को समझ नहीं पाते। हम रोजमर्रा की नींद में हैं- सुबह से शाम तक सभी काम आदत से करते हैं। रास्ते पर निकलकर अच्छे रास्ते पर चलना, अच्छे दफ्तर में ऊंचे पद पर कार्य करना, आना जाना सभी काम नींद में करते हैं।
गुजरात और असम आंदोलन :-
गुजरात में युवाओं ने भ्रष्ट्राचार आंदोलन के द्वारा तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री चिमन भाई पटेल की सरकार का तख्ता पलट दिया था। युवा शक्ति का अंदाजा सन् 1977, 1980 और 1989 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिला था। मार्च 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की जीत उनके किसी धुरंधर नेता के करिश्मों से नहीं हुई थी बल्कि श्री जयप्रकाश नारायण के नाम पर न्योछावर हो जाने वाले नवजवानों के कारण हुई थी। सन् 1980 में ये नवजवान उनकी गतिविधियों से भलीभांति परिचित हो गये थे अत: जनता पार्टी के वही नेता चुनाव में बुरी तरह पराजित हो गये। ठीक इसी प्रकार सन् 1989 में भी हुआ था। असम में कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों ने मिलकर असम गण परिषद बनाया और ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि अगले चुनाव में उनकी सरकार बन गयी। इससे सिद्ध हो गया कि युवा चाहे तो कुछ भी कर सकते हैं।
जे राजनीति में होता है वही साहित्य और कला के क्षेत्र में भी होता है। एक विद्रोही नवयुवक जिन मापदंडों के लिए विद्रोह करता है उसे प्राप्त कर लेने पर उसका विद्रोह समाप्त हो जाता है। अर्नाल्ड टायनबी ने अपनी पुस्तक 'सरबाइविंब द फ्यूचरमें नवजवानों को सलाह देते हुए लिखा है कि 'मरते दम तक जवानी के जोश को कायम रखना।' अधिकांश नवयुवक पहले विद्रोह करते हैं और उम्र के साथ साथ उसका विद्रोह समाप्त होते जाता है। फिर वे स्वयं वही करने लगते हैं जिनके कभी वे खिलाफ थे। यदि आप जीवन भर अपने जोश को कायम नहीं रख सकते तो आप यह मौका खे रहे हैं। कला में, संगीत में अथवा पारिवारिक जीवन में यही सब होता है। स्वयं अपनी जिंदगी में जिन विडंबनाओं को सहते हैं, वह दूसरों को सहनी न पड़े, इस बात का सभी ध्यान नहीं रखते। हर बहू सास बनने पर बहू की तरह सोचना छोड़ देती है। इस एक मात्र खतरे का अगर युवा पीढ़ी निवारण कर सके तो भविष्य उनके हांथों संवर सकता है। युवा पीढ़ी अपने दंभ से थक गई है। यदि वह पारदर्शक बनने का संकल्प करें तो वह कुछ भी कर सकता है। युवा वर्ग से हमने कभी कभी ऐसे चमत्कार होते देखा है जिसकी हमने कल्पना तक नहीं की थी। सुकरात नवयुवकों से बातें करते थे। उनके लिए गोष्ठी आयोजित करते थे। नवयुवकों का दिमाग उपजाऊ जमीन की तरह होता है। उन्नत विचारों का बीज बो दें तो वही ऊग आता है। ऐथेंस के शासकों को सुकरात का इसलिए भय था कि वह नवयुवकों के दिमाग में अच्छे विचारों के बीज बोने की क्षमता रखता था। आज इसका सर्वथा अभाव है। इस पीढ़ी में सोचने वालों की कमी नहीं है मगर उनके दिलों दिमाग में विचारों के बीज पल्लवित कराने वाले दिनोंदिन घटते जा रहे हैं। कला, संगीत और साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे कितने लोग हैं जो नई प्रतिभाओं को उभारने का ईमानदारी से प्रयास करते हैं ?
हेनरी मिलर ने एक बार कहा था-'मैं जमीन से उगने वाले हर तिनके को नमन करता हूं। इसी प्रकार मुझे हर नवयुवकों में वट वृक्ष बनने की क्षमता नजर आती है। हर क्षेत्र में चाहे वह कला, संगीत और साहित्य का हो, राजनीति और विज्ञान का हो, उसमें नई प्रतिभाएं उभरती रहती हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हम उन्हें उभरने का पूरा मौका देते हैं ?' उनकी बातों में मुझे सत्यता लगती है। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। इसी प्रकार नवयुवकों में अन्याय का सामना करने के लिए जोश और जिगर होना चाहिए। महादेवी वर्मा के शब्दों में 'बलवान राष्ट्र वही होता है जिसकी तरूणाई सबल होती है। जिसमें मृत्यु को वरण करने की क्षमता होती है, जिसमें भविष्य के सपने होते हैं और कुछ कर गुजरने का जज्बा होता है, वही तरूणाई है।' महादेवी वर्मा जब ऐसा कहती हैं तो इसका अर्थ होता है- मृत्यु को मार डालना। तरूणाई अनजानी भूमि पर जन्म लेकर विकसित होती है। उसके सामने चुनौतियां अधिक होती है मगर इन चुनौतियों का मुंहतोड़ जवाब देने का जज्बा उनमें होनी चाहिए। युवाशक्ति यदि ठान ले तो देश में बहुत बड़ा उलट फेर कर सकती है, आजादी का सदुपयोग कर सकती है, बशर्ते हम उन्हें मौका दे, उनके उपर विश्वास करें..? हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसी कौन सी परिस्थितियां हैं जो इस पीढ़ी को उनके उद्देश्यों से विमुख कर देती है, उन्हें असंयमित और अनुशासनहीन बना देती है।
कुंठानिराशा और हिंसा :-
आज हमारी शिक्षा रोजगारोन्मुखी न होकर बेरोजगारोन्मुखी होकर रह गयी है। माता-पिता अपने बच्चों को सही शिक्षा और दिशा देने में असफल रहे हैं। एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि चालीस प्रतिशत माता-पिता ही अपने बच्चे को शिक्षा के लिए सही मार्गदर्शन दे पाते हैं शेष भगवान भरोसे चलता है। इनके बच्चे बाइचान्स अच्छी शिक्षा लेकर अच्छे पदों पर रोजगार प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं बाकी बेलाइन हो जाते हैं। ये अपनी जिंदगी से निराश होकर चोरी, डकैती, गुंडागर्दी आदि के रास्ते निकल पड़ते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार किसी भी तरह की निराशा हिंसा को जन्म देती है। यही निराशा अवसर पाकर विस्फोटक रूप धारण कर लेती है। यह एक खतरनाक संकेत है जिसका निराकरण समय रहते करना आवश्यक है।
सर्वेक्षण से पता चलता है कि इसका सबसे बड़ा कारण है- आर्थिक विषमता। बेरोजगारी से त्रस्त नवयुवकों के लिए मौका मिलते ही किसी लूट में शामिल हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। टाटा इंस्टीटयूट ऑफ सोसल सांइन्सेस के अपराध विज्ञान के विभागाध्यक्ष के अनुसार नवयुवकों का किसी लूटपाट में शामिल होने का कारण नि:संदेह आर्थिक विषमता है। लेकिन पुलिस सूत्रों के अनुसार ब्रिटिश शासन काल के मंदी के दौर में ऐसी कोई घटनाएं नहीं घटती थी। तब समाज में आदर्शो के प्रति गहरा मूल्यबोध था। आज हमारे समाज में कोई मूल्य, कोई आदर्श नहीं रह गया है। मूल्यों का अंकुश समाप्त हो जाने के कारण हिंसा और लूटपाट की घटनाओं का विस्फोट स्वाभाविक है। इसके लिए आज की युवा पीढ़ी को दोष देना उचित नहीं होगा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऊपरी तबके का एक ही लक्ष्य पैसा कमाना रहा है, चाहे इसके लिए उन्हें अपना ईमान बेचना क्यों न पड़े और यही आदर्श हमने अपनी युवा पीढ़ी के सामने रखा है। वस्तुत: आज की मूल्यहीन पीढ़ी हमारी बुजुर्ग पीढ़ी का उत्पाद है। अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई का नग्न रूप आंखों को चूभता है। रही सही कसर को पूरा किया है टी. वी. ने। हिन्दी फिल्मों में प्रदर्शित सेक्स और हिंसा का ग्लैमराइजेशन युवक युवतियों के मन में वैसे ही जीवन जीने की लालसा पैदा कर देती है। इनमें बढ़ रही हिंसा और लूटपाट को उपर्युक्त सामाजिक और आर्थिक संदर्भ में देखा जा सकता है। अमीरी गरीबी के बीच बढ़ती खाई, बेरोजगारी, सामाजिक रिश्तों का अभाव, पारिवारिक विघटन, उपभोगवादी संस्कृति का प्रसार, कानून व्यवस्था के प्रति घटता सम्मान और टूटते सामाजिक राजनैतिक मूल्यों ने इन युवकों के भीतर निराशा पैदा कर दिया है जिसका एकमात्र निकासी उन्हें हिंसा और लूटपाट में मिलता है।
कर्म ही श्रेष्ठ है :-
जिस व्यक्ति ने अपना भविष्य निर्धारित कर लिया है तो उन्हें यह मानकर चलना चाहिए कि लक्ष्य के मार्ग में जो विपत्तियां आयेंगी उसका हम मुकाबला करेंगे। वह लक्ष्य ही क्या जिसकी पूर्ति में संघर्ष नहीं किया। हंसते हुए कष्टों को झेलना, विपत्तियों का स्वागत करना तथा अपने कर्म पर अडिग रहना, कर्तव्य के प्रति अटूट श्रद्धा उत्पन्न करती है। अपने निर्धारित लक्ष्य की सफलता के लिए कर्म ही श्रेष्ठ है। भाग्यवादी लोग आलसी होते हैं और भगवान भरोसे जीवन व्यतीत करते हैं। कर्मशील व्यक्ति भाग्य के बजाय अपने कर्म में विश्वास रखता है।
रोजगारोन्मुखी शिक्षा :-
शिक्षा के द्वारा हम न केवल अतीत के पृष्ठों को ही नहीं उलटते बल्कि उनकी अच्छाईयों करके स्वस्थ्य, सुंदर और सुखद भविष्य के निर्माण करते हैं। राष्ट्रीय विकास के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शिक्षा के माध्यम से योजनाबद्ध सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है। आज हमारी शिक्षा का माध्यम यह होना चाहिए कि हम आत्मनिर्भर बन सके। सरकार और अभिभावकों को अब समझ में आ गया कि शिक्षा को रोजगार परक होना चाहिए। इसके लिए वे अपने बच्चों को इसके लिए प्रेरित भी करने लगे हैं। शिक्षा को वास्तविक जीवन और उत्पादकता के साथ जोड़ना नितांत आवश्यक है। इसके लिए कार्य अनुभव को शिक्षा का आवश्यक अंग बनाना जरूरी है। शिक्षा को व्यवसायिक रूप देने का अर्थ है युवा पीढ़ी में ज्ञान, कौशल और अभिरूचि का पूर्ण विकास होना चाहिए जिससे आगे चलकर ये जो भी व्यवस्था अपनायें उसमें उनकी शिक्षा का समुचित उपयोग हो सके। कुछ लोगों का मत है कि सामान्य शिक्षा प्राप्त व्यक्ति की तुलना में व्यवसाय से जुड़े व्यक्ति केवल व्यवसायिक होकर रह जाते हैं।
उचित मार्गदर्शन :-
उचित मार्गदर्शन के अभाव में आज की युवा पीढ़ी अपने मार्ग से भटक जाती है और कुंठाग्रस्त होकर जहां घातक आत्मवंचना एवं स्वयं के प्रति उदासीनता लिए दिग्भ्रमित हो रहा है, वहीं आज का शिक्षक और अभिभावक सामान्यतया उस आत्म केंद्रित, आत्मचिंतक तथा स्वकल्याण मग्न मनु जैसा हो गया है जो अपने ही प्रज्ञा से प्रसूत संतति के प्रति उदासीन है। अपने ही मानस पुत्रों के प्रति उसके इसके दुर्भाग्यपूर्ण कृत्य का परिणाम है-संपूर्ण दिग्भ्रमित, अनुत्तरदायी और अनुशासनहीन पीढ़ी। इस पर ध्यान दिया जाना अति आवश्यक है।
विश्वास को जगायें :-
मनुष्य के मन में दो शक्तियां निवास करती हैं-भय और विश्वास। ये दोनों शक्तियां मनुष्य की विचारधारा पर नियंत्रण पाने के लिए निरंतर एक दूसरे से संघर्ष करती है। आप जो भी निर्णय लेंगे उसे पूरा करने की क्षमता आप में निहित है। किंतु इसके लिए दृढ़ विश्वास और सतत् प्रयास करते रहना आवश्यक है। ऐसा कतई नहीं है कि ज्ञान का भंडार विश्व का महान कहलाने वाले व्यक्तियों के पास ही है, आप में भी ज्ञान के स्रोत हैं बशर्ते आप उसका दोहन करना जानते हों ? विश्वास में महान शक्ति निहित होती है। विश्वास शरीर की ऊर्जा को मुक्त कर देती है जिससे निर्णय लेने की शक्ति मिलती है। विद्वानों ने कहा भी है कि आत्महीनता विचारों का तराना है। उसके माधुर्य को आप अस्वीकार कर दीजिए। दर्पण के सामने खड़े होकर अपने स्वाभिमान को जगाइये, स्वयं को चुनौती दीजिए। सफलता या असफलता एक मानसिक स्थिति है इसे स्वीकार करना या न करना पूरी तरह आपके वश में है। आपका व्यक्तित्व एक दर्पण है। उसमें आप जितना झांकेंगे उतना ही वह आकर्षक बनेगा और दर्पण को आप जितना साफ करेंगे उतना ही वह चमकेगा, उसमें आपकी छवि उतनी ही स्पष्ट दिखाई देगी।
बदलता जीवन शैली और युवा :-
युवाओं की स्थिति आज कटी पतंग जैसी अथवा पुराण के त्रिशंकु जैसी अनिश्चित हो गयी है। जीवन के मूल्य तेजी से बदल रहे हैं। बल्कि यूं कहिए कि प्राचीन मूल्य नष्ट हो रहे हैं और नवीन मूल्यों का निर्माण नहीं हो पा रहा है। परिवर्तन की इस आपाधापी में हमारी युवा पीढ़ी प्राय: भ्रमित होती दिखाई देती है। हमारे उदीयमान नागरिक उचित अनुचित को पहचानने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं। मूल्यों की इस अव्यवस्था में समाज और संस्कृति का विघटन होने लगा है। समाज में पलायन और बेगानेपन के स्वर गूंजने लगे हैं और मानव सभ्यता के सामने एक प्रश्न चिन्ह लग गया है।
आज युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित है। हिंसक प्रवृत्तियाँ बलवती होती जा रही हैं। प्रत्येक क्षेत्र में असंतोष, अशांति, विध्वंस और विघटन की प्रवृत्तियां हावी हैं। ऐसे में हमें अपनी युवा पीढ़ी के प्रति उदारता दिखाते हुए उन्हें सहयोग करना चाहिए तभी एक नया सबेरा हो पायेगा।
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मनुज-समाज की यात्रा, क्षितिज की यात्रा से कम नहीं होती; जो कभी समाप्त नहीं होती । प्रत्येक आनेवाली पीढ़ी, अतीत और वर्तमान की कड़ी होती है , अगर हम इस बात को मान लें, तो युवावर्ग की भाषा को समझना आसान हो जायगा ; अन्यथा यह विकट है । आज के युवावर्ग ,अपनी विरासत से विचार –दर्शन बहुत कम ही पाते हैं, कारण माँ-बाप, दोनों का कामकाजी होना और एकल परिवार का होना । दोनों ही कारण ,बच्चों को एकांकी और चिड़चिड़ा बना दे रहा है । आखिर विचार-दर्शन उन्हें कौन करायेगा, जिसके बिना आज का युवावर्ग चौराहे पर खड़ा है,वे जायें तो किधर जायें । अपनी जीवन-गति का निर्माण करें, तो किस प्रकार करें ; कौन बतायेगा । ऐसे में तिराहों पर युवावर्ग का स्तम्भित होना स्वाभाविक है, लेकिन इस भटकाव को हम स्वाभाविक नहीं कह सकते ।



देश की आजादी के 66 साल बीत जाने के बावजूद देश की जितनी उन्नति होनी चाहिये थी, नहीं हो सकी । अन्यान्य कारणों के अलावा, न्वयुवकों का बेरोजगार होना तथा सही दिशा- निर्देश से वंचित रहना, मुख्य कारण है । उनमें धर्य नहीं है, वे चिंतित जीया करते हैं। अधिकतर जहाँ-तहाँ बैठकर गप्पेबाजी कर समय काटते हैं; वक्त की पाबंदी और अनुशासन का अभाव है । वे हमेशा तनाव की जिंदगी जीते हैं । धैर्य और सहनशीलता के घटते जाने का कारण, टेलीवीजन भी कम नहीं है; जो आज घर-घर की आवश्यकता के साथ-साथ बच्चों के जीवन विनाश का माध्यम बन गई है । बच्चे स्वीच आन करने के साथ ही, मार-धाड़, गोलियाँ बरसाना, खून करना, इससे भी बदतर है , गंदे-गंदे दृश्यों को दिखाना । ज्यादातर परिवार में सिर्फ़ माँ-बाप और बच्चे होते हैं । माँ-बाप का कामकाजी होने से बच्चों को रोकने-टोकने वाला नहीं होता है । वे दिन भर टी० वी० के आगे बैठकर, उन्हीं गंदे दृश्यों और मार-धाड़ देखते रहते हैं, जिससे उनकी मनोवृति अनुशासानहीन हो जाती है । नतीजा छोटी-छोटी बातों पर आक्रामक और हिंसक हो जाते हैं , जो उनके लिए हानिकारक तो है ही,परिवार के लिये भी बुरा होता है ।


सरकारी महकमें भी इन युवाओं को भटकाने का काम कम नहीं कर रहे हैं । पुलिस का असामाजिक तत्वों के प्रति नरम रवैया, पीड़ितों की उपेक्षा व रिश्वत्खोरी की लत की वजह से समाज में अपराध बढ़ते जा रहे हैं । पुलिस की लापरवाही व मनमाने व्यवहार से सुरक्षा का भरोसा समाप्त होता जा रहा है । पहले तो अपराधी पकड़े नहीं जाते, अगर कभी पकड़े गये, तो रिश्वत देकर छूट जाते हैं ।


बेगुनाहों को पकड़कर जेल भेज देना, उनके साथ मारपीट करना,कभी-कभी तो थाने में मारते-मारते मार देना है । इन सब कारणों से युवावर्ग अपने को असहाय महसूस करते हैं, जिससे गुस्सा और बदले की भावना उत्पन्न हो जाती है और वे संयम खो बैठते हैं ।



सरकार की ओर से धर्म व जाति के नाम पर आरक्षण ,तो आग में घी डालने का काम कर रहा है । नेता युवाओं का इस्तेमाल, प्रदर्शन,रैली व हड़ताल जैसे कामों के लिए करते हैं । इससे युवा क्या सीखेंगे ? इस तरह युवाओं की उर्जा गलत जगह प्रयोग कर, ये नेतागण,अपनी पार्टी के वोटों के लिए, इनकी जिंदगी से खिलवाड़ करते हैं । इससे इनके स्वभाव से धैर्य व नैतिकता गायब होने लगा है । माँ-बाप के पास समय नहीं होता ; आया या पड़ोसी जैसा सिखाते हैं, बड़े होकर वे उस प्रवृति के हो जाते हैं । इनमें इनका कसूर नहीं, कसूर है---माँ-बाप,समाज और सरकार का,जो इन्हें अच्छी राह दिखा नहीं पा रहे हैं, बल्कि दिन व दिन इन्हें गहरी खाई की ओर धकेल रहे हैं । ये भूल रहे हैं,जब-तक युवा नहीं जागेगा, देश नहीं जागेगा ।


यौवन जिंदगी का सर्वाधिक मादक अवस्था होता है । इस अवस्था को भोग रहा युवक वर्ग ,केवल देश की शक्ति ही नहीं, बल्कि वहाँ की सांस्कृतिक आत्मा का प्रतीक भी होता है । अगर हम यह मानते हैं कि, यह संसार एक उद्यान है, तो ये नौजवान इस उद्यान की सुगंध हैं । युवा वर्ग किसी भी काल या देश का आईना होता है जिसमें हमें उस युग का भूत, वर्तमान और भविष्य , साफ़ दिखाई पड़ता है । इनमें इतना जोश रहता है कि ये किसी भी चुनौती को स्वीकारने के लिये तैयार रहते हैं । चाहे वह कुर्बानी ही क्यों न हो, नवयुवक अतीत का गौरव और भविष्य का कर्णधार होता है और इसी में यौवन की सच्ची सार्थकता भी है ।


हमारे दूसरे वर्ग, बूढ़े- बुजुर्ग जिनके बनाये ढ़ाँचे पर यह समाज खड़ा रहता आया है; उनका कर्त्तव्य बनता है कि इन नव युवकों के प्रति अपने हृदय में स्नेह और आदर की भावना रखें, साथ ही बर्जना भी । ऐसा नहीं होने पर, अच्छे-बुरे की पहचान उन्हें कैसे होगी ? आग मत छूओ, जल जावोगे; नहीं बताने से वे कैसे जानेंगे कि आग से क्या होता है ? माता-पिता को या समाज के बड़े-बुजुर्गों को भी, नव वर्ग के बताये रास्ते अगर सुगम हों, तो उन्हें झटपट स्वीकार कर उन रास्तों पर चलने की कोशिश करनी चाहिये ।


ऐसे आज 21वीं सदी की युवा शक्ति की सोच में,और पिछले सदियों के युवकों की सोच में जमीं-आसमां का फ़र्क आया है । आज के नव युवक , वे ढ़ेर सारी सुख-सुविधाओं के बीच जीवन व्यतीत करने की होड़ में अपने सांस्कृतिक तथा पारिवारिक मूल्यों और आंतरिक शांति को दावँ पर लगा रहे हैं । सफ़लता पाने की अंधी दौड़, जीवन शैली को इस कदर अस्त-व्यस्त और विकृत कर दिया है कि आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण ,उनके जीवन को बर्वाद कर दे रहा है । उनकी सहनशीलता खत्म होती जा रही है । युवकों के संयमहीन व्यवहार के लिए हमारे आज के नेता भी दोषी हैं । आरक्षण तथा धर्म-जाति के नाम पर इनका इस्तेमाल कर, इनकी भावनाओं को अपने उग्र भाषणों से भड़काते हैं और युवाओं की ऊर्जा का गलत प्रयोग कर अपने स्वार्थ की पूर्ति करते है ;जिसके फ़लस्वरूप आज युवा वर्ग भटक रहा है । धैर्य, नैतिकता, आदर्श जैसे शब्द उनसे दूर होते जा रहे हैं । पथभ्रष्ट और दिशाहीन युवक, एक स्वस्थ देश के लिए चिंता का विषय है । आज टेलीवीजन , जो घर-घर में पौ फ़टते ही अपराधी जगत का समाचार, लूट, व्यभिचार, चोरी का समाचार लेकर उपस्थित हो जाता है,या फ़िर गंदे अश्लील गानों को बजने छोड़ देता है । कोई अच्छा समाचार शायद ही देखने मिलता है । ये टेलीवीजन चैनल भी युवा वर्ग को भटकाने में अहम रोल निभा रहे हैं । दूसरी ओर इनकी इस दयनीय मनोवृति के लिये उनके माता-पिता व अभिभावक भी कम दोषी नहीं हैं । वे बच्चों की मानसिक क्षमता का आंकलन किये बिना उन्हें आई० ए० एस०, पी०सी० एस०, डाक्टर, वकील, ईंजीनियर आदि बनाने की चाह पाल बैठते हैं और जब बच्चों द्वारा उनकी यह चाहत पूरी नहीं होती है, तब उन्हें कोसने लगते हैं । जिससे बच्चों का मनोबल गिर जाता है । वे घर में तो चुपचाप होकर उनके गुस्से को बरदास्त कर लेते हैं; कोई वाद-विवाद में नहीं जाते हैं, यह सोचकर,कि माता-पिता को भविष्य के लिये और अधिक नाराज करना ठीक नहीं होगा । लेकिन ये युवक जब घर से बाहर निकलते हैं, तब बात-बात में अपने मित्रों, पास-पड़ोसी से झगड़ जाते हैं । इसलिये भलाई इसी में है कि बच्चों की मानसिक क्षमता के अनुसार ही माँ-बाप को अपनी अपेक्षा रखनी चाहिये । अन्यथा उनके व्यक्तित्व का संतुलित विकास नहीं हो पायेगा ; जो कि बच्चों के भविष्य के लिये बहुत हानिकर है ।



मेरा मानना है कि युवा वर्ग में इस प्रकार का चिंताजनक व्यवहार देश की भ्रष्ट, रिश्वतखोर व्यवस्था है । जहाँ ये अपने 
को असहाय महसूस करते हैं । उनके भीतर पनपती कुंठा, इस प्रकार उग्र रूप्धारण करती है । आज युवा वर्ग एम०ए०, इंजीनियरिंग आदि की पड़ाई करके भी बेरोजगार हैं । कारण आज शिक्षा और योग्यता से ज्यादा महत्व सिफ़ारिश का है । जिन बच्चों को माँ-बाप , अपना घर गिरवी रखकर, उधार-देना कर, मजदूरी कर पढ़ाते हैं ; यह सोचकर कि पढ़ाई खतम होने के बाद, बेटा कोई नौकरी में जायगा, तब इन सब को लौटा लूँगा । मगर जब वे पढ़-लिखकर भी बेरोजगार, दर-दर की ठोकरें खाते फ़िरते हैं, तब युवा वर्ग में आक्रोश जन्म लेता है । जो आये दिन हमें हिंसक प्रवृतियों के रूप में देखने मिलता है । जब तक समाज में ये ऊँच-नीच, नौकरशाही रहेगी , युवा वर्ग कुंठित और मजबूर जीयेंगे ।